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________________ उत्तरज्झयणाणि २५० व्याख्या के शब्द सहसा कालिदास के इस श्लोक की याद दिला देते हैं- शैशवेऽभ्यस्तविद्यानां यौवने विषयैषिणाम् । वार्धक्ये मुनिवृत्तीनां योगेनानी तनुत्यजाम्॥ १४८) पिता के कहने का अभिप्राय था कि हम लोग बुढ़ापे में मुनि बनेंगे। गमिस्सामो— यह अनियत वास का संकेत है। चूर्णिकार ने यहां गांव में एक रात और नगर में पांच रात रहने का उल्लेख किया है।' २२. भोग हमारे लिए अप्राप्त नहीं हैं हम उन्हें अनेक बार प्राप्त कर चुके हैं (अणागयं नेव य अत्थि किंचि) आत्मा को पुनर्भवि मानने वालों के लिए यह एक बहुत बड़ा तथ्य है। लोग कहते हैं—यह दीक्षित हो रहा है, इसने संसार में आकर क्या देखा है, क्या पाया है ? इसे अभी घर में रहना चाहिए। इस बात का उत्तर कुमारों ने आत्मवाद के आ र पर दिया है। उन्होंने कहा - अनादि काल से संसार में परिभ्रमण करने वाली आत्मा के लिए अप्राप्त कुछ भी नहीं है, उसे सब कुछ प्राप्त हो चुका है। पदार्थ की प्राप्ति के लिए उसे घर में रहना आवश्यक नहीं है। जहां मृत्यु न पहुंच पाए वैसा कोई स्थान नहीं है—यह इसका दूसरा अर्थ है। २३. हे वाशिष्ठि ! ( वासिट्ठि ! ) गोत्र से सम्बोधित करना गौरव सूचक समझा जाता था, इसलिए पुरोहित ने अपनी पत्नी को 'वाशिष्टि' कह कर सम्बोधि त किया।" देखें- दसवे आलियं, ७।१७ का टिप्पण । २४. सुसंस्कृत ( सुसंभिया) जो इन्द्रियों के विषय को संपादित करने वाली सारी सामग्री से युक्त होते हैं, सुसंस्कृत होते हैं, वे सुसंभृत कहलाते हैं। यह शब्द 'कामगुण' का विशेषण है। २५. श्रृंगार रस ( अग्गरसा...) नौ रसों में शृंगार पहला रस है, इसलिए इसे अग्रचरस कहा जा सकता है । वृत्ति में यह वैकल्पिक अर्थ के रूप में प्रस्तुत है। उत्तराध्ययन चूर्णि, पृ० २३७ : गमिस्सामो, अणियत्तवासी गामे एगरातीओ नगरे पंचरातीयो । २. बृहद्वृत्ति, पत्र ४०४ 'अनागतम्' अप्राप्तं नैव चास्ति किंचिदिति मनोरममपि विषयसौख्यादि अनादी संसारे सर्वस्य प्राप्तपूर्वत्वात्ततो न तदर्थमपि गृहावस्थानं युक्तमिति भावः । ३. बृहद्वृत्ति, पत्र ४०४ : यद्वाऽनागतं यत्र मृत्योरागतिर्नास्ति तन्न किंचित्स्थानमस्ति । ४. बृहद्वृत्ति, पत्र ४०५ वाशिष्ठि ! - वशिष्टगोत्रोद्भवे, गोरवख्यापनार्थं गोत्राभिधानम् । ५. (क) उत्तराध्ययन चूर्णि, पृ० २२६ : अग्गरसानां सुखानां । १. Jain Education International अध्ययन १४ : श्लोक २८-३६ टि० २२-३० और वृत्ति में मधुर आदि प्रधान चूर्ण में रस किया है।" २६. मोक्ष मार्ग ( पहाणमग्गं) प्रधान का अर्थ है-मोक्ष। चूर्णिकार ने इस पद के तीन अर्थ किए हैं – (१) ज्ञान, दर्शन और चारित्र (२) दसविध श्रमण धर्म (३) तीर्थंकरों का मार्ग। वृत्ति के अनुसार इसका अर्थ हैमहापुरुषों द्वारा आसेवित प्रव्रज्यारूपी मुक्तिमार्ग ।" 'गमिस्सामुपहाणमग्गं' में संधि-विच्छेद करने पर 'उपहाणमग्गं' पाठ होता है। इसका संस्कृत रूप होगा'उपधानमार्ग' और अर्थ होगा - तपस्या का मार्ग । २७. हे भवति ! ( भोइ !) इसका अर्थ महाराष्ट्र में यह शब्द पूज्य के अर्थ में प्रचलित है । चूर्णि और वृत्ति में इसको आमंत्रण-वचन मानकर भवति ! रूप में प्रस्तुत किया है। २८. घन, धान्य आदि (कुडुंबसारं ) सुख कुटुम्ब के लिए वे ही सारभूत पदार्थ होते हैं जिनसे कुटुम्ब का भरण-पोषण होता है। हिरण्य, सुवर्ण, धन, धान्य आदि कुटुम्बसार माने जाते हैं । यह लाक्षणिक अर्थ की अभिव्यंजना है। २९. बार-बार (अभिक्ख) चूर्णि और वृत्ति में इसका अर्थ 'अभीक्ष्णं पुनः पुनः किया है।' 'कुटुम्बसार विलुत्तमं त इस वाक्य का कोई क्रियापद नहीं है। इसलिए वृत्तिकार ने 'गेण्हतं' पद का अध्याहार किया है।" यदि 'अभिक्ख' पद का अभिकांक्षत् रूप माना जाए तो अध्याहार की आवश्यकता नहीं रहती। वर्णलोप के द्वारा यह सिद्ध हो सकता है। ३०. वह तुम्हें त्राण भी नहीं दे सकेगा (नेव ताणाय तं तव) ६. रानी कमलावती ने राजा से कहा- -धन-धान्य या परिवार परलोक में त्राण नहीं दे सकता। चूर्णिकार ने यहां एक श्लोक उद्धृत किया है" अत्येण गंदराया ण वाइओ गोहणेण कुइनो धन्ने तिलयसेनी पुन ताइओ सगरो । (ख) वृहद्वृत्ति, पत्र ४०७ । उत्तराध्ययन चूर्ण, पृ० २२६ : पहाणमग्गो णाम ज्ञानदंसणचरिताणि, दसविधो वा समणधम्मो, पहाणं वा मग्गं पहाणमग्गं, तीर्थकराणामित्यर्थः । ७. बृहद्वृत्ति, पत्र ४०६ प्रधानमार्ग महापुरूषसेवितं प्रव्रज्यारूपं मुक्तिपथमिति । (क) उत्तराध्ययन चूर्णि, पृ० २२६ : हे भवति !..... । (ख) बृहद्वृत्ति, पत्र ४०६ हे भवति ! आमन्त्रणवचनमेतत् । ६. (क) उत्तराध्ययन चूर्णि, पृ० २३० । For Private & Personal Use Only (ख) बृहद्वृत्ति, पत्र ४०८ । १०. बृहद्वृत्ति, पत्र ४०८ तदिति यत् पुरोहितेन त्यक्तं गृहलन्तमिति शेषः । ११. उत्तराध्ययन चूर्ण, पृ० २३० । www.jainelibrary.org
SR No.003626
Book TitleAgam 30 Mool 03 Uttaradhyayana Sutra Uttarajjhayanani Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2006
Total Pages770
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_uttaradhyayan
File Size25 MB
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