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________________ इषुकारीय २४९ अध्ययन १४ : श्लोक १८-२६ टि० १८-२१ और टीका में सम्यक्-दर्शन आदि गुण-समूह का ग्रहण किया समय भी। पिता के इस प्रतिपादन का प्रतिवाद कुमारों ने इन गया है।' शब्दों में किया--"आत्मा नहीं दीखती इतने मात्र से उसका बहिविहारा-इसका द्रव्य और भाव-दोनों दृष्टियों से नास्तित्व नहीं माना जा सकता। इन्द्रियों के द्वारा मूर्त-द्रव्य ही अर्थ किया गया है। द्रव्य-दृष्टि से बहिर्विहार का अर्थ है 'नगर जाने जा सकते हैं। आत्मा अमूर्त है इसलिए वह इन्द्रियों के आदि से बाहर रहने वाला' और भाव-दृष्टि से इसका अर्थ है द्वारा ग्राह्य नहीं है, किन्तु मन के द्वारा ग्राह्य है।" प्रस्तुत श्लोक 'प्रतिबन्ध रहित विहार करने वाला। तीसरे श्लोक में यह शब्द में-आत्मा है, वह नित्य है, उसके कर्म का बन्ध होता है और मोक्ष के अर्थ में प्रयुक्त है। बन्ध के कारण वह बार-बार जन्म का वरण करती है१८. (श्लोक १८) आस्तिकता के आधारभूत इन चार तथ्यों का निरूपण है। धर्माचरण का मूल आत्मा है। पुरोहित ने सोचा यदि मेरे नो इंदिय-चूर्णि में 'नो-इंदिय' को एक शब्द माना है। पुत्र आत्मा के विषय में संदिग्ध हो जाएं तो इनमें मुनि बनने इसलिए उसके अनुसार इसका अर्थ मन होता है और टीका की प्रेरणा स्वतः समाप्त हो जाएगी। उसने इस भावना से आत्मा में 'नो' और 'इन्द्रिय' को पृथक-पृथक माना है। के नास्तित्व का दृष्टिकोण उपस्थित करते हुए जो कहा, वही इस अज्झत्थ-अध्यात्म का अर्थ है 'आत्मा में होने वाला'। श्लोक में है। मिथ्यात्व आदि आत्मा के आन्तरिक दोष हैं। इसलिए उन्हें 'अ असंतो-तत्त्व की उत्पत्ति के विषय में दो प्रमुख विचारधाराएं यात्म' कहा जाता है। सूत्रकृतांग में क्रोध आदि को 'अध्यात्म-दोष' हैं-सदवाद और असदवाद। असदवादियों के अभिमत में कहा है। आत्मा उत्पत्ति से पूर्व असत होती है। कारण-सामग्री मिलने पर २०. अमोघा (अमोहाहिं) वह उत्पन्न होती है, नष्ट होती है, अवस्थित नहीं रहती- अमोघ का शाब्दिक-अर्थ अव्यर्थ—अचूक है। किन्तु यहां जन्म-जन्मान्तर को प्राप्त नहीं होती।' अमोघा का प्रयोग रात्रि के अर्थ में किया गया है। महाभारत में १९. (श्लोक १९) इसका अर्थ दिन-रात किया है। चूर्णिकार ने एक प्रश्न खड़ा आस्तिकों के अभिमत में सर्वथा असत की उत्पत्ति होती किया है.--अमोघा का अर्थ रात ही क्यों ? क्या कोई दिन में नहीं ही नहीं। उत्पन्न वही होता है, जो पहले भी हो और पीछे भी मरता? इसके समाधान में उन्होंने बताया है—यह लोक-प्रसिद्ध हो। जो पहले भी नहीं होता, पीछे भी नहीं होता, वह बीच में बात है कि मृत्यु को रात कहा जाता है, जैसे दिन की समाप्ति भी नहीं होता। आत्मा जन्म से पहले भी होती है और मृत्यु रात में होती है वैसे ही जीवन की समाप्ति मृत्यु में होती है।" के पश्चात् भी होती है, इसलिए वर्तमान शरीर में उसकी उत्पत्ति काल-प्रवाह के अर्थ में उत्तराध्ययन में रात्रि शब्द का प्रयोग को असत् की उत्पत्ति नहीं कहा जा सकता। अनेक स्थलों पर मिलता है। जहां रात होती है, वहां दिवस नास्तिक लोग आत्मा को इसलिए असत मानते हैं कि अवश्य होता है, इसलिए शान्त्याचार्य ने अमोघा से दिवस का भी जन्म से पहले उसका कोई अस्तित्व नहीं होता और उसको ग्रहण किया है।" अनवस्थित इसलिए मानते हैं कि मृत्यु के पश्चात् उसका २१. (पच्छा, गमिस्सामो) अस्तित्व नहीं रहता। इसका कारण यह है कि आत्मा न तो पच्छा–पश्चात् शब्द के द्वारा पुरोहित ने आश्रम-व्यवस्था शरीर में प्रवेश करते समय दीखती है और न उससे बिछुड़ते की ओर पुत्रों का ध्यान खींचने का यत्न किया है। इसकी १. बृहद्वृत्ति, पत्र ४०१ : गुणोघं-सम्यग्दर्शनादिगुणसमूहम्। २. बृहद्वृत्ति, पत्र ४०१ : बहिः-ग्रामनगरादिभ्यो बहिर्वर्तित्वाद् द्रव्यतो भावतश्च क्वचिदप्रतिवद्धत्वाद् विहारः-विहरणं ययोस्ती बहिर्विहारी अप्रतिबद्धविहारावितियावत। ३. बृहद्वृत्ति, पत्र ४०१ : आत्मास्तित्वमूलत्वात्सकलधर्मानुष्टानस्य तन्निराकरणायाह पुरोहितः। बृहद्वृत्ति, पत्र ४०१, ४०२ : 'सत्त्वाः' प्राणिनः ‘समुच्छंति' त्ति समूर्छन्ति, पूर्वमसन्त एव शरीराकारपरिणतभूतसमुदायत उत्पद्यन्ते, तथा चाहु:-"पृथिव्यापरतेजोवायुरिति तत्त्वानि, एतेभ्यश्चैतन्य, मद्यांगेभ्यो मदशक्तिवत्", तथा 'नासइ' त्ति नश्यन्ति---अभपटलवत्प्रलयमुपयान्ति 'णावचिटूठे' ति न पुनः अवतिष्ठन्ते-शरीरनाशे सति न क्षणमप्यवस्थितिभाजो भवन्ति। (क) आयारो, ४१४६ : जस्स नत्थि पुरा पच्छा मज्झे तस्स कओ सिया। (ख) माध्यमिककारिका, ११२ : नैवाग्रं नावरं यस्य, तस्य मध्यं कुतो भवेत्। (ग) माण्डूक्यकारिका, २६ : आदावन्ते च यन्नास्ति वर्तमाने पितत यथा। ६. उत्तराध्ययन चूर्णि, पृ० २२६ : नोइन्द्रिय मनः। ७. बृहद्वृत्ति, पत्र ४०२ : 'नो' इति प्रतिषेधे इन्द्रियैः-श्रोत्रादिभिर्गाह्यः-संवेद्य इन्द्रियग्राह्यः । ८. बृहद्वृत्ति, पत्र ४०२ : अध्यात्मशब्देन आत्मरथा मिथ्यात्वादय इहोच्यन्ते। ६. सूयगडो, १।६।२५ : कोहं च माणं च तहेव मायं, लोभं चउत्थं अज्झत्थदोसा। १०. महाभारत, शान्तिपर्व, २७७।६। ११. उत्तराध्ययन चूर्णि, पृ० २२७ : अमोहा रयणी, कि दिवसतो ण मरति ?, उच्यते-लोकसिद्धं यन्मरतीति (रति) वाहरंती य, अहवा सो न दिवसे विणा (रत्तीए) तेण रत्ती भण्णति, अपच्छिमत्वाद्वा णियमा रत्ती। १२. उत्तरज्झयणाणि, १०।१; १४।२३-२५ । १३. बृहद्वृत्ति, पत्र ४०३ : अमोघा 'रयणि' ति रजन्य उक्ताः, दिवसाविनाभावित्वात्तासां दिवसाश्च। १४. बृहद्वृत्ति, पत्र ४०४ : 'पश्चाद्' यौवनावस्थोत्तरकालं, कोऽर्थः?-पश्चिमे वयसि। Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003626
Book TitleAgam 30 Mool 03 Uttaradhyayana Sutra Uttarajjhayanani Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2006
Total Pages770
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_uttaradhyayan
File Size25 MB
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