________________
उत्तरायणाणि
२४८
और यज्ञ कर मोक्ष में मन लगाए—संन्यासी बने । पुरोहित ने इसी सिद्धांत का प्रतिपादन किया है।
बौद्धयन धर्मसूत्र के अनुसार ब्राह्मण जन्म से ही तीन ऋणों— पितृ ऋण, ऋषि ऋण और देव ऋणको साथ लिए उत्पन्न होता है। इन ऋणों को चुकाने के लिए यज्ञ, याग आदि पूर्वक गृहस्थाश्रम का आश्रय करने वाला मनुष्य ब्रह्मलोक को पहुंचता है और ब्रह्मचर्य या संन्यास की प्रशंसा करने वाले लोग धूल में मिल जाते हैं।'
स्मृतिकारों के अनुसार पितृ ऋण सन्तानोत्पत्ति के द्वारा ऋषि ऋण स्वाध्याय के द्वारा और देवऋण यज्ञ आदि के द्वारा चुकाया जा सकता है।
महाभारत (शांतिपर्व, मोक्ष धर्म, अध्याय २७७) में एक ब्राह्मण और उसके मेधावी नामक पुत्र का संवाद है । पिता मोक्ष - धर्म में अकुशल और पुत्र मोक्ष-धर्म में विचक्षण था। उसने पिता से पूछा - " तात ! मनुष्यों की आयु तीव्र गति से बीती जा रही है। इस बात को अच्छी तरह जानने वाला धीर पुरुष किस धर्म का अनुष्ठान करे ? पिता ! यह सब क्रमशः और यथार्थ रूप से आप मुझे बताइए, जिससे मैं भी उस धर्म का आचारण कर सकूं ।”
पिता ने कहा- "बेटा ! द्विज को चाहिए कि वह पहले ब्रह्मचर्य आश्रम में रह कर वेदों का अध्ययन कर ले, फिर पितरों का उद्धार करने के लिए गृहस्थ आश्रम में प्रवेश करके पुत्रोत्पादन की इच्छा करे। वहां विधि-पूर्वक अग्नियों की स्थापना करके उनमें विधिवत् अग्निहोत्र करे । इस प्रकार यज्ञ कर्म का सम्पादन करके वानप्रस्थ आश्रम में प्रविष्ट हो मुनिवृत्ति से रहने की इच्छा करे ।"
स्मृति ग्रन्थों में ब्राह्मणों को भोजन कराने का पुनः पुनः
विधान मिलता है।
११. संतप्त और परितप्त हो रहा था (संतत्तभावं परितप्यमाण) संतप्तभाव और परितप्यमान इन दोनों में कार्य-कारण का सम्बन्ध है । जिसका भाव (अन्तःकरण) संतप्त रहता है, वह परितप्यमान हो जाता है। यह शोक का आवेश शरीर में दाह उत्पन्न करने का हेतु बनता है।' व्यक्ति दाह से चारों ओर परितप्त होता है।
१२. अतिशय (बहुहा बहुं च) चूर्णि में बहुधा का अर्थ पुनः पुनः : और बहु का अर्थबहुत प्रकार का है। वृत्ति में बहुधा का अर्थ-अनेक
9. बौद्धायन धर्मसूत्र, २।६।११।३३-३४ ।
२. मनुस्मृति, ३१३१, १८६, १८७१
३. वृहद्वृत्ति, पत्र ३६६ : समिति - समन्तात् तप्त इव तप्तः अनिर्वृतत्वेन भावः -- अन्तःकरणमरयेति संतप्तभावः तम्, अत एव च परितप्यमानंसमन्ताद् दह्यमानम्, अर्थात् शरीरे दाहस्यापि शोकावेशत उत्पत्तेः । उत्तराध्ययन चूर्णि, पृ० २२३ ।
४.
५. बृहद्वृत्ति, पत्र ४०० |
Jain Education International
अध्ययन १४ : श्लोक १२-१७ टि० ११-१७
प्रकार का और बहु का अर्थ- प्रचुर है ।" १३. अन्धकारमय नरक (तमं तमेणं)
वृत्तिकार ने 'तम' का अर्थ नरक और 'तमेण' का अर्थ अज्ञान से, किया है। 'तमंतमेणं' को एक शब्द तथा सप्तमी के स्थान में तृतीया विभक्ति मानी जाए तो इसका वैकल्पिक अर्थ होगा— अन्धकार से भी जो अति सघन अन्धकारमय हैं वैसे रौरव आदि नरक ।
१४. ( जाया य पुत्ता.....)
मनुस्मृति आदि में 'अपुत्रस्य गति र्नास्ति', 'अनपत्यस्य लोका न सन्ति', 'पुत्रेण जायते लोक आदि सूक्तियां मिलती हैं। भगवान् महावीर ने कहा— माता, पिता, पुत्र, भार्या आदि कोई त्राण नहीं हो सकते। स्वर्ग या नरक की प्राप्ति में व्यक्ति का अपना पुरुषार्थ ही काम आता है । पुत्रोत्पत्ति से ही यदि स्वर्ग की प्राप्ति होती है तो भला कौन धर्म का आचरण करेगा ?
१५. दूसरों के लिए प्रमत्त होकर (अन्नप्पमत्ते)
'अन्न' के संस्कृत रूप दो होते हैं— अन्य और अन्न । अन्य - प्रमत्त अर्थात् मित्र- स्वजन आदि के लिए प्रमाद में फंसा हुआ। अन्न- प्रमत्त अर्थात् भोजन या जीविका के लिए प्रमाद में फंसा हुआ ।
१६. उठाने वाला काल (हरा)
1
यहां 'हर' शब्द का प्रयोग काल के अर्थ में किया गया है रोग भी आयु का हरण करता है, इसलिए उसे भी 'हर' कहा जाता है । एक प्राचीन गाथा है
किं तेसिं ण बीभेया, आसकिसोरीहिं सिम्पलग्गाणं । आयुबल मोडयाणं दिवसाणं आवडवा ? (श्लोक १७)
१७.
'धन के लिए धर्म नहीं करना चाहिए और धन से धर्म नहीं होता' - इस जैन- दृष्टि से परिचित कुमारों ने जो कहा वह धर्म के उद्देश्य के सर्वथा अनुरूप है | प्रस्तुत श्लोक का प्रतिपाद्य यह है कि धर्म के क्षेत्र में आत्मा के पवित्र आचरणों का ही महत्त्व है; धन, स्वजन और कामगुणों का कोई महत्त्व नहीं है। शान्त्याचार्य ने इस विचार के समर्थन में 'वेदेप्युक्तं ' लिख कर एक वाक्य उद्धृत किया है--'न सन्तान के द्वारा, न धन के द्वारा किन्तु अकेले त्याग से ही लोगों ने अमृतत्व को प्राप्त किया है ' ' न प्रजया न धनेन त्यागैनैकनामृतत्वमानशुः ।
गुणोह— चूर्णि में गुणौघ से अठारह हजार शीलांग" का
६. बृहद्वृत्ति, पत्र ४०० : तमोरूपत्वात् तमो - नरकस्तत्तमसा- - अज्ञानेन यद् वा तमसोऽपि यत्तमस्तस्मिन् अतिरौद्रे रौरवादिनरके ।
७. बृहद्वृत्ति, पत्र ४००, ४०१ : अन्ये- सुहत्रवजनादयः, अथवा अन्नं भोजनं तदर्थं प्रमत्तः- तत्कृत्यासक्तचेता अन्यप्रमत्तः अन्नप्रमत्तो वा ।
उत्तराध्ययन चूर्णि पृ० २२५ ।
८.
६. वृहद्वृत्ति, पत्र ४०१ |
१०. उत्तराध्ययन चूर्णि, पृ० २२५ गुणोहो- अट्ठारस सीलंगसहस्साणि ।
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org