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टिप्पण
अध्ययन ८: कापिलीय
१. अघुव अशाश्वत (अधुवे असासयंमि)
पीछे किया जाता है—इन भावनाओं के आधार पर चूर्णिकार ने आचारांग वृत्ति में अधूव के दो अर्थ प्राप्त हैं-अनित्य पूर्व-संयोग का अर्थ संसार का सम्बन्ध, असयम का सम्बन्ध और चल।' अनित्य वह होता है जिसका नाश अवश्यंभावी है। और ज्ञाति का सम्बन्ध किया है। शान्त्याचार्य और नेमिचन्द्र ने चल वह होता है जो चलमान-गतिशील होता है।
पूर्व-संयोग का अर्थ—पूर्व-परिचितों का संयोग अर्थात् माता-पिता शान्त्याचार्य ने एक ही स्थान से प्रतिबद्ध वस्तु को धूव आदि तथा धन आदि का सम्बन्ध किया है। माना है। संसार अध्रुव है क्योंकि उसमें प्राणी उच्च-अवच आदि ३. दोषों और प्रदोषों से (दोसपओसेहि) स्थानों में भ्रमण करते रहते हैं। वे एक स्थान से प्रतिबद्ध नहीं यहां दो शब्द हैं-दोष और प्रदोष । दोष का अर्थ है--- होते।
मानसिक संताप आदि। प्रदोष का अर्थ है-नरकगति आदि। शाश्वत का अर्थ है-सदा होने वाला। जो सदा नहीं होता ४. हित और कल्याण के लिए (हियनिस्सेसाए) वह अशाश्वत है। संसार में कुछ भी शाश्वत नहीं है। राज्य, धन, हित का अर्थ है—निरुपम सुख का हेतुभूत, आत्मा के धान्य, परिवार आदि अशाश्वत हैं। हारिलवाचक ने कहा है'- लिए स्वास्थ्यकर। निःश्रेयस् का अर्थ है-मोक्ष अथवा कल्याण। चलं राज्यश्वर्य धनकनकसारः परिजनो,
चूर्णि में निःश्रेयस् का अर्थ इहलोक, परलोक में निश्चित श्रेय नृपाद्वाल्लभ्यं च चलममरसौख्यं च विपुलम् । अथवा अक्षय श्रेय किया है। चलं रूपाउरोग्यं चलमिह चरं जीवितमिदं,
प्राकृत व्याकरण के अनुसार 'निस्सेस' का अर्थ निःशेष जनो दृष्टो यो वै जनयति सुखं सोऽपि हि चलः॥ अथवा समस्त, संपूर्ण भी हो सकता है। इस संदर्भ में निःशेषहित
अध्रुव और अशाश्वत—ये दोनों शब्द एकार्थवाची भी हैं। का अर्थ-संपूर्ण हित है। इसमें पुनरुक्त दोष नहीं है। चूर्णिकार ने पुनरुक्त न होने के ५. म पांच सौ चोरों की मुक्ति के लिए (तसिं विमोक्खणट्ठाए) सामान्यतः पांच कारण बतलाए हैं—(१) भक्तिवाद (२) शब्द पर कपिल ने पूर्व-भव में इन सभी पांच सौ चोरों के साथ विशेष बल देने के लिए (३) कृपा में (४) उपदेश में (५) भय संयम का पालन किया था और उन सबके द्वारा यह संकेत दिया प्रदर्शित करने के लिए।
हुआ था कि समय आने पर हमें सम्बोधि देना। उसकी पूर्ति के प्रस्तुत प्रसंग में चूर्णिकार ने पुनरुक्त न होने के ये दो लिए कपिल मुनि उन्हें संबुद्ध कर रहे हैं उनकी मुक्ति के लिए कारण दिए हैं:-उपदेश और भय-दर्शन तथा वृत्तिकार ने ये दो प्रवचन कर रहे हैं।" कारण दिए हैं—उपदेश में और किसी शब्द पर विशेष बल देते ६. कलह का (कलह) समय।
शान्त्याचार्य और नेमिचन्द्र ने इसका अर्थ 'क्रोध और २. पूर्व संबंधों का (पुब्बसंजोग)
चूर्णिकार ने 'भण्डन' किया है।३ भण्डन का अर्थ है-- संसार पहले होता है और मोक्ष पीछे। असंयम पहले वाक्-कलह, गाली देना और क्रोध। होता है और संयम पीछे। ज्ञातिजन पहले होते हैं, उनका त्याग डॉ० हरमन जेकोबी ने इसका अर्थ 'तिरस्कार'-घृणा
१. आचारांगवृत्ति, पत्र २६६ । २. बृहद्वृत्ति, पत्र २८६ । ३. वही, पत्र २८६। ४. उत्तराध्ययन चूर्णि, पृ० १७०। ५. वही, पृ० १७०। ६. बृहवृत्ति, पत्र २८६ । ७. उत्तराध्ययन चूर्णि, पृ० १७१ : पुज्यो णाम संसारो, पच्छा मोक्खो, पुव्वेण
संजोगो पुब्बस्स वा संजोगो पुवसंजोगो, अथवा पुवसंजोगो असंजमेण
णातीहिं वा। ८. (क) बृहबृत्ति, पत्र २६०: पुरा परिचिता मातृपित्रादयः पूर्वशब्देनोच्यन्ते
___ ततस्तैः, उपलक्षणत्वादन्यैश्च स्वजनधनादिभिः संयोगः-सम्बन्धः
पूर्वसंयोगः। (ख) सुखबोधा, पत्र १२६ ।। ६. सुखबोधा, पत्र १२६ : दोषाः-इहैव मनस्तापादयः, प्रदोषाः--परत्र
नरकगत्यादयः। १०. उत्तराध्ययन चूर्णि, पृ० १७१ : इह परत्र च नियतं निश्चित वा श्रेयः
निःश्रेयसं अखय। ११. वही, पृ० १७१ : तेसिं चोराणं, तेहिं सव्वेहिं पुवभवे सह कविलेण एगट्ठ
संजमो कतो आसि, ततो तेहिं सिंगारो कतिल्लओ जम्हा अम्हे संबोधितव्वेति। १२. (क) बृहवृत्ति, पत्र २६१ : कलहहेतुत्वात्कलहः-क्रोधस्तम् ।
(ख) सुखबोधा, पत्र १२६ । १३. उत्तराध्ययन चूर्णि, पृ० १७१ : कलाभ्यो हीयते येन स कलह: भण्डनमित्यर्थः ।
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