SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 567
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ उत्तरज्झयणाणि ५२६ अध्ययन ३० : श्लोक ३३,३४ टि० १३,१४ दोवताएका वैद्यावृत्य, (७) और ११०) साधर्मिक का (७) लोकोपचार-विनय-लोक-व्यवहार के अनुसार विनय हैं। गण और कुल की भांति संघ का अर्थ भी साधु-परक ही करना। होना चाहिए। ये दसों प्रकार केवल साधु-समूह के विविध पदों तत्त्वार्थ सूत्र (६२३) में विनय के प्रकार चार ही या रूपों से सम्बद्ध हैं। बतलाए गए हैं—(१) ज्ञान-विनय, (२) दर्शन-विनय, (३) चारित्र- १४. (श्लोक ३४) विनय और (४) उपचार-विनय। स्वाध्याय आभ्यन्तर-तप का चौथा प्रकार है। उसके पांच १३. (श्लोक ३३) भेद हैं—(१) वाचना, (२) प्रच्छना, (३) परिवर्तना, (४) अनुप्रेक्षा वैयावृत्त्य आभ्यन्तर-तप का तीसरा प्रकार है। स्थानांग और (५) धर्मकथा। देखें-२६।१८ का टिप्पण। (१०।१७) के आधार पर उसके दस प्रकार हैं--(१) आचार्य का तत्त्वार्थ सूत्र (६२५) में इनका क्रम और एक नाम भी वैयावृत्त्य, (२) उपाध्याय का वैयावृत्त्य, (३) स्थविर का वैयावृत्त्य, भिन्न है—(१) वाचना, (२) प्रच्छना, (३) अनुप्रेक्षा, (४) आम्नाय (४) तपस्वी का वैयावृत्त्य, (५) ग्लान का वैयावृत्त्य, (६) शैक्ष (नव- और (५) धर्मोपदेश। दीक्षित) का वैयावृत्त्य, (७) कुल का वैयावृत्त्य, (८) गण का वैयावृत्त्य, इनमें परिवर्तना के स्थान में 'आम्नाय' है। आम्नाय का (६) संघ का वैयावृत्त्य और (१०) साधर्मिक का वैयावृत्त्या अर्थ है 'शुद्ध उच्चारण पूर्वक बार-बार पाठ करना'।६ भगवती (२५ १५९८) और औपपातिक (सूत्र ४१) के परिवर्तना या आम्नाय को अनुप्रेक्षा से पहले रखना वर्गीकरण का क्रम उपर्युक्त क्रम से कुछ भिन्न है। वह इस अधिक उचित लगता है। स्वाध्याय के प्रकारों में एक क्रम हैप्रकार है : (१) आचार्य का वैयावृत्त्य, (२) उपाध्याय का आचार्य शिष्यों को पढ़ाते हैं, यह वाचना है। पढ़ते समय या वैयावृत्त्य, (३) शैक्ष का वैयावृत्त्य, (४) ग्लान का वैयावृत्त्य, पढ़ने के बाद शिष्य के मन में जो जिज्ञासाएं उत्पन्न होती हैं, (५) तपस्वी का वैयावृत्त्य, (६) स्थविर का वैयावृत्त्य, (७) साधर्मिक उन्हें वह आचार्य के सामने प्रस्तुत करता है, यह प्रच्छना है। का वैयावृत्त्य, (८) कुल का वैयावृत्त्य, (E) गण का वैयावृत्त्य, आचार्य से प्राप्त श्रुत को याद रखने के लिए वह बार-बार (१०) संघ का वैयावृत्त्य। उसका पाठ करता है, यह परिवर्तना है। परिचित श्रुत का मर्म तत्त्वार्थ सूत्र (६२४) में ये कुछ परिवर्तन के साथ समझने के लिए वह उसका पर्यालोचन करता है, यह अनुप्रेक्षा मिलते हैं—(१) आचार्य का वैयावृत्त्य, (२) उपाध्याय का है। पठित, परिचित और पर्यालोचित श्रुत का उपदेश करता है, वैयावृत्त्य, (३) तपस्वी का वैयावृत्त्य, (४) शैक्ष का वैयावृत्त्य, यह धर्मकथा है। इस क्रम में परिवर्तना का स्थान अनुप्रेक्षा से (५) ग्लान का वैयावृत्त्य, (६) गण का वैयावृत्त्य (गण- पहले प्राप्त होता है। श्रुत-स्थविरों की परम्परा का संस्थान)२, (७) कुल का वैयावृत्त्य सिद्धसेन गणि के अनुसार अनुप्रेक्षा का अर्थ है 'ग्रन्थ (एक आचार्य का साधु-समुदाय 'गच्छ' कहलाता है। एक और अर्थ का मानसिक अभ्यास करना।' इसमें वर्णों का जातीय अनेक गच्छों को 'कुल' कहा जाता है।)२, (८) संघ का उच्चारण नहीं होता और आम्नाय में वर्गों का उच्चारण होता वैयावृत्त्य (संघ अर्थात् साधु, साध्वी, श्रावक और श्राविका), है, यही इन दोनों में अन्तर है। अनुप्रेक्षा के उक्त अर्थ के (६) साधु का वैयावृत्त्य और (१०) समनोज्ञ का वैयावृत्त्य। अनुसार उसे आम्नाय से पूर्व रखना भी अनुचित नहीं है। (समान सामाचारी वाले तथा एक मण्डली में भोजन करने वाले आम्नाय, घोषविशुद्ध, परिवर्तन, गुणन और रूपादानसाधु 'समनोज्ञ' कहलाते हैं)। ये आम्नाय या परिवर्तना के पर्यायवाची शब्द हैं। ___इस वर्गीकरण में स्थविर और साधर्मिक ये दो प्रकार अर्थोपदेश, व्याख्यान, अनुयोग-वर्णन, धर्मोपदेश ये नहीं हैं। उनके स्थान पर साधु और समनोज्ञ-ये दो प्रकार धर्मोपदेश या धर्मकथा के पर्यायवाची शब्द हैं। औपपातिक, सूत्र ४१ की वृत्ति में निम्न परिभाषाएं हैं: कुल-गच्छों का समुदाय (कुलं गच्छसमुदायः)। गण—कुलों का समुदाय (गणं कुलानां समुदायः)। संघ-गणों का समुदाय (संघो गणसमुदायः)। साधर्मिक-समान धर्मा—समान धर्म वाले साधु-साध्वी (साधर्मिकः साधुः साध्वी वा)। तत्त्वार्थाधिगम सूत्र, ६२४, भाष्यानुसारीटीका : गणः-स्थविरसन्ततिसंस्थितिः। स्थविरग्रहणेन श्रुतस्थविरपरिग्रहः, न बयसा पर्यायण वा, तेषां सन्ततिः-परंपरा तस्याः संस्थानं वर्तनं अद्यापि भवनं संस्थितिः। वही, ६।२४ : कुलमाचार्यसन्ततिसंस्थितिः एकाचार्यप्रणेय- साधुसमूहो गच्छः । बहूनां गच्छानां एकजातीयानां समूहः कुलम्। ४. वही, ६।२४ : सङ्घःश्चतुर्विधः-साधु-साध्वी-श्रावक-श्राविकाः ५. वही, ६।२४ : द्वादशविधसम्भोगभाजः समनोज्ञानदर्शन- चारित्राणि मनोज्ञानि सह मनोहः समनोज्ञाः। ६. वही, २५, श्रुतसागरीय दृत्ति : अष्टस्थानोच्चारविशेषेण यच्छुद्धं घोषणं पुनः पुनः परिवर्तनं स आम्नायः कथ्यते। ७. वही, ६२५, भाष्यानुसारी टीका : सन्देहे सति ग्रन्थार्थयोर्मनसाऽभ्या सोऽनुप्रेक्षा । न तु बहिर्वर्णोच्चारणमनुश्रावणीयम् । आम्नायोऽपि परिवर्तन उदात्तादिपरिशुद्धमनुश्रावणीयमभ्यासविशेषः । ८. तत्त्वार्थ सूत्र, ६२५, भाष्य : आम्नायो घोषविशुद्ध परिवर्तनं गुणनं, रूपादानमित्यर्थः। ६. वही, ६२५ : अर्थोपदेशो व्याख्यानं अनुयोगवर्णनं धर्मोपदेश इत्यनर्धान्तरम्। Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003626
Book TitleAgam 30 Mool 03 Uttaradhyayana Sutra Uttarajjhayanani Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2006
Total Pages770
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_uttaradhyayan
File Size25 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy