SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 566
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ तपो मार्ग गति १०. (श्लोक २८) I इस श्लोक में छठे बाह्य तप की परिभाषा की गई है आठवे श्लोक में बाह्य तप का छट्टा प्रकार 'संलीनता' बतलाया गया है और इस श्लोक में उसका नाम 'विविक्त शयनासन' है । भगवती ( २५ ।५५८) में छट्टा प्रकार 'प्रतिसंलीनता' है । तत्त्वार्थ सूत्र ( ६-१६) में विविक्त - शयनासन बाह्य तप का पांचवां प्रकार है। मूलाराधना ( ३।२०८ ) में विविक्त-शय्या बाह्य-तप का छट्ठा प्रकार है । इस प्रकार कुछ ग्रन्थों में संलीनता या प्रतिसंलीनता और कुछ ग्रन्थों में विविक्त शय्यासन या विविक्त-शय्या का प्रयोग मिलता है। किन्तु औपपातिक के आधार पर यह कहा जा सकता है कि मूल शब्द 'प्रतिसंलीनता' है। विविक्त-शयनासन उसी का एक अवांतर भेद है। प्रतिसंलीनता चार प्रकार की होती है - (१) इन्द्रियप्रतिसंलीनता, (२) कवाय प्रतिसंलीनता, (३) योग-प्रतिसंलीनता और (४) विविक्त- शयनासन सेवन ।' प्रस्तुत अध्ययन में संलीनता की परिभाषा केवल विविक्त-शयनासन के रूप में की गई, यह आश्चर्य का विषय है। हो सकता है सूत्रकार इसी को महत्त्व देना चाहते हों । - ५२५ 1 तत्त्वार्थ सूत्र आदि उत्तरवर्ती ग्रन्थों में इसी का अनुसरण है। विविक्त-शयनासन का अर्थ मूलपाठ में स्पष्ट है मूलाराधना के अनुसार शब्द, रस, गन्ध और स्पर्श के द्वारा चित्त-विक्षेप नहीं होता, स्वाध्याय और ध्यान में व्याघात नहीं होता, वह ' विविक्त शय्या' है। जहां स्त्री-पुरुष और नपुंसक न हों, वह विविक्त शय्या है। भले फिर उसके द्वार खुले हों या बन्द, उसका प्रांगण सम हो या विषम, वह गांव के बाह्य भाग में हो या मध्य भाग में शीत हो या ऊष्ण । विविक्त- शय्या के कुछ प्रकार ये हैं- - शून्य-गृह, गिरिरे-गुफा, वृक्ष-मूल, आगन्तुक-आगार (विश्राम गृह), देव-कुल, अकृत्रिम शिला-गृह और कूट- गृह । विविक्त शय्या में रहने से इतने दोषों से सहज ही बचाव हो जाता है -- (१) कलह, (२) बोल ( शब्द बहुलता ), (३) झंझा ( संक्लेश), (४) व्यामोह, (५) सांकर्य (असंयिमों के साथ मिश्रण), (६) ममत्व और (७) ध्यान और स्वाध्याय का व्याघात ।" ११. (श्लोक ३१). प्रायश्चित्त आभ्यन्तर तप का पहला प्रकार है। उसके दस भेद हैं १. ओवाइयं, सूत्र ३७ से किं तं पडिसंलीणया ? पडिसंलीणया चउब्बिहा पण्णत्ता, तंजहा - इंदियपडिसंलीणया कसायपडिसंलीणया जोगपडिसंलीणया विवित्तसयणासणसेवणया। Jain Education International २. तत्त्वार्थ सूत्र ६ । १६ अनशनावमौदर्यवृत्तिपरिसंख्यानरसपरित्यागविविक्तशय्यासनकायक्लेशा बाह्यं तपः । अध्ययन ३० : श्लोक २८-३२ टि० १०-१२ (१) आलोचना - योग्य — गुरु के समक्ष अपने दोषों का निवेदन करना। (२) प्रतिक्रमण - योग्य किए हुए पापों से निवृत्त होने के लिए 'मिथ्या में दुष्कृतम्' 'मेरे सब पाप निष्फल हों' ऐसा कहना, कायोत्सर्ग आदि करना तथा भविष्य में पाप-कार्यों से दूर रहने के लिए सावधान रहना । (३) तदुभय-योग्य पाप से निवृत्त होने के लिए आलोचना और प्रतिक्रमण—दोनों करना । (४) विवेक - योग्य — आए हुए अशुद्ध आहार आदि का उत्सर्ग करना । (५) व्युत्सर्ग- योग्य चौवीस तीर्थकरों की स्तुति के साथ कायोत्सर्ग करना। ३. ४. (६) तप-योग्य — उपवास, बेला आदि करना । (७) छेद-योग्य — पाप निवृत्ति के लिए संयम - काल को छेद कर कम कर देना । (८) मूल योग्य – पुनः व्रतों में आरोपित करना - नई दीक्षा देना । (६) अनवस्थापना - योग्य — तपस्या पूर्वक नई दीक्षा देना । (१०) पाराचिक योग्य भर्त्सना एवं अवहेलना पूर्वक नई दीक्षा देना । * १२. (श्लोक ३२) विनय आभ्यन्तर तप का दूसरा प्रकार है। प्रस्तुत श्लोक में उसके प्रकारों का निर्देश नहीं है । स्थानांग (७/१३०), भगवती (२५५६२) और औपपातिक (सूत्र ४०) में विनय के सात भेद बतलाए गए हैं (१) ज्ञान- विनय ज्ञान के प्रति भक्ति, बहुमान आदि करना । (२) दर्शन - विनय — गुरु की शुश्रूषा करना, आशातना न करना । (३) चरित्र - विनय चारित्र का यथार्थ प्ररूपण और अनुष्ठान करना । (४) मनो- विनय — अकुशल मन का निरोध और कुशल की प्रवृत्ति। (५) वचन - विनय- अकुशल-वचन का निरोध और कुशल की प्रवृत्ति । (६) काय-विनय अकुशल- काय का निरोध और कुशल की प्रवृत्ति । मूलाराधना, ३।२२८-२६, ३१, ३२ । (क) ठाणं, १०७३। (ख) भगवई, २५। ५५६ । (ग) ओवाइयं, ३६ । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003626
Book TitleAgam 30 Mool 03 Uttaradhyayana Sutra Uttarajjhayanani Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2006
Total Pages770
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_uttaradhyayan
File Size25 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy