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________________ उत्तरज्झयणाणि ८६ अध्ययन ४ : श्लोक ६ टि० १०-१२ जैसे—कोंकण देश का द्वीप।। ११. (सुत्तेसु) प्रकाश-दीप के दो भेद हैं-संयोगिम और असंयोगिम। सप्त शब्द में उन दोनों का समावेश होता है, जो सोया जो तैल, वर्ति आदि के संयोग से प्रदीप्त होता है वह 'संयोगिम' हआ हो और जो धर्माचरण के लिए जागृत न हो। कहलाता है और सूर्य, चन्द्र आदि के बिम्ब 'असंयोगिम' १२. जागत रहे (पडिबद्धजीवी) कहलाते हैं। प्रतिबुद्ध शब्द में उन दोनों का समावेश होता है—'जो यहां प्रकाश-दीप अभिप्रेत है। कई धातुवादी धातु प्राप्ति के नींद में न हो और जो धर्माचरण के लिए जागत हो। लिए भूगर्भ में गए। दीप, अग्नि और इंधन उनके पास थे। प्रतिबोध का अर्थ है-जागरण। वह दो प्रकार का हैप्रमादवश दीप बुझ गया, अग्नि भी बुझ गई। अब वे उस गहन (१) निदा का अभाव और (२) धर्माचरण और सत्य के प्रति अन्धकार में उस मार्ग को नहीं पा सके, जो पहले देखा हुआ जागरूकता। जिनकी चेतना द्रव्यतः सघन निद्रा के द्वारा और था। वे भटक गए। एक स्थान पर महान् विषधर सर्प थे। वे भावतः मूर्छा के द्वारा प्रसुप्त है, उनका विवेक जागृत नहीं तुवादी वहां जा निकले। सपों ने उन्हें डसा। वे वहीं एक गढ़े होता। जो व्यक्ति दोनों अवस्थाओं में जागता है, वह प्रतिबुद्धजीवी में गिरे और तत्काल मृत्यु को प्राप्त हो गए। है। वह पूरा जीवन जागरण का जीवन जीता है।' सरपेन्टियर शान्त्याचार्य के दीप परक अर्थ को गलत दशवैकालिक सूत्र में प्रतिबुद्धजीवी की परिभाषा उपलब्ध मानते हैं। किन्तु शान्त्याचार्य ने नियुक्तिकार के मत का अनुसरण जो मन वचन और माया की टापनि प नियंत्रण कर 'दीव' शब्द के सम्भावित दो अर्थों की जानकारी दी है। । रखने में सक्षम होता है। उनमें प्रस्तुत अर्थ प्रकाश-दीप को ही माना है-अत्र च (२) जो धृतिमान होता है। प्रकाशदीपेनाधिकृतम् । (३) जो संयमी और जितेन्द्रिय होता है। १०. (श्लोक १-५) उत्तराध्ययन की चूर्णि के अनुसार प्रतिबुद्धजीवी वह है जो प्रस्तुत अध्ययन के प्रथम पांच श्लोकों में भगवान् महावीर कषायों और इन्द्रियों पर विजय प्राप्त कर चलता है। के अपरिग्रह के दृष्टिकोण की व्याख्या मिलती है। संग्रह की निद्रा-अजागरूकता के प्रतिषेध के लिए व्याख्या-ग्रन्थों में व्यर्थता को बतलाने के लिए उन्होंने महत्त्वपूर्ण पांच सूत्र दिए। 'अगडदत्त' का उदाहरण दिया गया है। चूर्णि में इस कथानक का वे ये हैं रूप अत्यन्त संक्षिप्त है। बृहवृत्तिकार ने प्राकृत गद्य में १. जीवन स्वल्प है। वह सांधा नहीं जा सकता, फिर कथानक प्रस्तुत किया है" और सुखबोधा में यह कथानक ३२८ इतने छोटे से जीवन के लिए इतना संग्रह क्यों? गाथाओं में निबद्ध है। २. अशुद्ध साधनों से, पापकारी प्रवृत्तियों से धन का कथा का सार संक्षेप उपार्जन या संग्रह दुःख या दुर्गति का हेतु है। अगडदत्त एक रथिक का पुत्र था। बाल्य अवस्था में ही ३. कृत कर्मों से प्राणी छेदा जाता है--दंडित होता है। पिता का वियोग हो गया। वह वयस्क होकर कौशंबी नगरी में किए हुए कर्मों को भोगे बिना छुटकारा नहीं मिलता। शस्त्र-विद्या सीखने गया। वहां एक निपुण शस्त्राचार्य के पास ४. व्यक्ति परिवार के लिए कर्म करता है, परन्तु कर्मों के शस्त्रविद्या में निपुण हो, अपनी निपुणता का प्रदर्शन करने फलभोग के समय पारिवारिक जन उसका हिस्सा राजकुल में गया। राजा और सभी सभासद् उसकी दक्षता पर नहीं बंटाते, उसको अकेले ही फल भोगना पड़ता है। मुग्ध होकर उसे नगर रक्षा का भार सौंप दिया। ५. धन त्राण नहीं दे सकता। सारा जनपद एक चोर की हरकतों से संत्रस्त हो रहा था। इन हेतुओं को सामने रखकर संग्रह की व्यर्थता का राजा ने नगर रक्षक अगडदत्त को चोर को पकड़ लाने का काम अंकन किया जा सकता है। सौंपा। वह राजकुल से चोर को पकड़ने निकला। वह एक उद्यान १. उत्तराध्ययन चूर्णि, पृ. ११४-११५ : जो पुण सो विच्छिणात्तणेण ५. बृहद्वृत्ति, पत्र २१२ । उस्सित्तणेण य जलेण ण छादेज्जति सो जीतिवत्थीणं त्राणाय, असंदीणो ६. वही, पत्र २१३ : सुप्तेषु द्रव्यतः शयानेषु भावतस्तु धर्म प्रत्यजाग्रत्सु। दीवो जह कोंकणदीवो। ७. वही, पत्र २१३। २. उत्तराध्ययन नियुक्ति, गाथा २०७। ८. दशवैकालिक, चूलिका २१४,१५ । ३. बृहद्वृत्ति, पत्र २१२, २१३ । ६. उत्तराध्ययन चूर्णि, पृष्ठ ११६ : प्रतिबुद्धजीवनशील : प्रतिबुद्धजीवी, ण ४. The Uttaradyayana Sutra, P.295: दीवप्पणढे is a composition of विस्ससेज्ज कसायिदिएसु। which the two parts have a wrong position one to the other : the १०. उत्तराध्ययन चूर्णि, पृष्ठ ११६ । word ought to be re g: But S also thinks it possible to explain ११. बृहद्वृत्ति, पत्र २१३-२१६ । दीवo by द्वीप-I think that would give a rather bad sense. १२. सुखबोधा, पत्र ८४-६४। Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003626
Book TitleAgam 30 Mool 03 Uttaradhyayana Sutra Uttarajjhayanani Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2006
Total Pages770
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_uttaradhyayan
File Size25 MB
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