SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 126
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ असंस्कृत ८५ अध्ययन ४ : श्लोक ५ टि० ८, ६ में सात प्रकार की सेंध बतलाई गई हैं-पद्म (कमल) के आकार इस कथा की तुलना 'मृच्छकटिक' (३।१३) में आई हुई कथा से की, सूर्य के आकार की, अर्द्धचन्द्र के आकार की, जलकुंड के होती है। उसमें चारुदत्त की विशाल हवेली की दीवार के निकट आकार की, स्वस्तिक के आकार की, उभरे बर्तन (पूर्णकुम्भ) के खड़ा निष्णात चोर 'शर्विलक' सोच रहा है--'तरुलता से आकार की और आयताकार । आच्छादित इस भित्ति में सेंध कैसे लगाई जाए ? सेंध देखने के इस प्रसंग पर चूर्णि (पृष्ठ ११०, १११), बृहवृत्ति (पत्र बाद लोग विस्मयाभिभूत हो उसकी प्रशंसा न करें तो मेरी सेंध २०७, २०८) और सुखबोधा (पत्र ८१, ८२) में दो कथाओं का लगाने की विशेषता ही क्या हुई ?' उल्लेख हुआ है। ८. (वित्तेण ताणं न लभे पमत्ते) दोनों कथाए इस प्रकार हैं व्यक्ति धन कमाता है, पर वह उसके लिए त्राण नहीं १. एक नगर में एक कुशल चोर रहता था। वह नाना बनता। धन सुख-सुविधा दे सकता है, पर शरण नहीं। व्याख्याग्रंथों प्रकार की सेंध लगाने में निपुण था। एक बार वह एक अभेद्य में एक कथा हैघर में कपिशीर्षक (कोंगरेवाली) सेंध लगा रहा था। इतने में ही इन्द्रमह उत्सव का आयोजन था। राजा ने अपने नगर में घर का स्वामी जाग गया। वह सेंध की ओर देखने लगा। चोर घोषणा करवाई कि आज नगर के सभी पुरुष गांव के बाहर ने सेंध लगाने का कार्य पूरा कर, उसमें अपने दोनों पैर डाले। उद्यान में एकत्रित हो जाएं। कोई भी पुरुष नगर के भीतर न घर का स्वामी सचेत था। उसने उसके दोनों पैर बलपूर्वक पकड़ रहे। यदि कोई रहेगा तो उसे मौत का दंड भोगना पड़ेगा। सभी लिए। चोर ने बाहर खड़े साथी चोर से कहा-भीतर मेरे पैर पुरुष नगर के बाहर एकत्रित हो गए। राजपुरोहित का पुत्र एक पकड़ लिए हैं। तुम जोर लगाकर मुझे बाहर खींच लो। साथी वेश्या के घर में जा छपा। राज्य कर्मचारियों को पता लगा और चोर ने वैसा ही करना प्रारम्भ किया। भीतर और बाहर दोनों वे वेश्या के घर से पकड़ कर ले गए। वह राजपुरुषों के साथ ओर से इसकी खिंचाई होने लगी। उस सेंथ के कंगरू तीखे थे। विवाद करने लगा। वे उसे राजा के समक्ष ले गए। राजाज्ञा की बार-बार की खिंचाई से सारा शरीर लहुलूहान हो गया। छोड़ा अवहेलना के जुर्म में राजा ने उसे मृत्युदंड दिया। पुरोहित राजा दोनों ने नहीं। वह विलाप करता हुआ मर गया। के समक्ष उपस्थित होकर बोला-राजन् ! मैं अपना सर्वस्व २. एक चोर घर के पिछवाड़े में सेंध लगाकर एक आपको दे देता है। आप मेरे इकलौते पत्र को मुक्त कर दें। धनाढ्य व्यक्ति के घर में घुसा। घर के सभी सदस्य निद्राधीन थे। राजा ने उसकी बात स्वीकार नहीं की और पुरोहित पुत्र को उसने मनचाहा धन चुराया और उसी सेंध से बाहर निकल कर शली पर चढ़ा दिया। घर आ गया। रात बीती। प्रभात हुआ। उसने स्नान कर नए कर नए जो धन यहां भी त्राण नहीं दे पाता, वह परलोक में प्राण कपडे पहने और उसी घर के समीप आ उपस्थित हुआ। वह कैसे बनेगा। जानना चाहता था कि लोग उस सेंध के विषय में क्या कहते हैं ? आचार्य नेमिचन्द्र ने वित्त—धन के परिणामों की चर्चा वे उसे (चोर को) पहचान पाते हैं या नहीं? यदि पहचान नहीं करते हुए एक श्लोक उद्धृत किया है--२ पाएंगे तो मैं पुनः पुनः चोरी करूंगा। वह सेंध के स्थान पर 'मोहाययणं मयकामवद्धणो जणियचित्तसंतावो। आया। वहां भीड़ एकत्रित हो गई थी। सभी सेंध लगाने वाले की आरंभकलहहे ऊ दुक्खाण परिग्गही मूलं।' निपुणता पर आश्चर्य व्यक्त कर रहे थे। वे कहने लगे-अरे! परिग्रह मोह का आयतन, अहंकार और कामवासना को इस घर पर चढ़ना अत्यन्त कठिन है। चोर इस पर कैसे चढा? बढ़ाने वाला, चित्त में संताप पैदा करने वाला, हिंसा और कलह कैसे उसने पीछे की दीवार पर सेंध लगाई ? ओह ! इस छोटी-सी सेंध में होकर वह भीतर कैसे गया और धन की कालय ___ का हेतु तथा दुःखों का मूल है। पोटली के साथ फिर इस छोटे सेन्ध-द्वार से कैसे निकला? चोर ९. अन्धेरी गुफा में जिसका दीप बुझ गया हो (दीवपणठे) सुन रहा था। उसने अपनी कमर और पेट की ओर देखा। फिर नियुक्तिकार ने प्राकृत के अनुसार 'दीव' के दो अर्थ देखा उस छोटी-सी सेंध की ओर। दो गुप्तचर वहां खड़े थे। वे किए हैं-आश्वास-द्वीप और प्रकाश-दीप। जिससे समुद्र में इसकी सारी गतिविधियों पर ध्यान रख रहे थे। वे तत्काल आए निमग्न मनुष्यों को आश्वासन मिलता है उसे 'आश्वास-द्वीप' और उसका निग्रह कर राजा के पास ले गए। उसने चोरी की और जो अन्धकार में प्रकाश फैलाता है, उसे 'प्रकाश-दीप' कहा बात स्वीकार की। राजा ने उसे दंडित कर कारावास में डाल जाता है। आश्वास-द्वीप के दो भेद हैं-संदीन और असंदीन। दिया। जो जल-प्लावन आदि से नष्ट हो जाता है, उसे 'संदीन' प्रस्तुत कथा में चोर अपने द्वारा लगाई गई सेंध की प्रशंसा और जो नष्ट नहीं होता उसे 'असंदीन' कहते हैं। चूर्णिकार के सुनकर हर्षातिरेक से संयम न रखने के कारण पकड़ा जाता है। अनुसार असंदीन द्वीप विस्तीर्ण और ऊंचा होता है। ३. उत्तराध्ययन नियुक्ति, गाथा २०६ । १. वृहद्वृत्ति, पत्र २११।। २. सुखबोधा, पत्र ८३। Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003626
Book TitleAgam 30 Mool 03 Uttaradhyayana Sutra Uttarajjhayanani Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2006
Total Pages770
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_uttaradhyayan
File Size25 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy