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________________ असंस्कृत ८७ अध्ययन ४ : श्लोक ६ टि० १३, १४ में, एक सघन वृक्ष के नीचे विश्राम के लिए बैठा और उपाय की उपमा का प्रयोग अनेक स्थलों में किया गया है। चिंता करने लगा। इतने में ही एक परिव्राजक उसी वृक्ष की छांह कल्पसूत्र में भगवान् महावीर को—'भारंडपक्खी इव में आकर बैठा। अगडदत्त को उस व्यक्ति के चोर होने का संदेह अप्पमत्ते'–भारंड पक्षी की भांति अप्रमत्त कहा गया है। चूर्णि हुआ। परिव्राजक और अगडदत्त—दोनों परस्पर बातचीत करने और टीकाओं के अनुसार ये दो जीव संयुक्त होते हैं। इन दोनों लगे। अगडदत्त बोला--भगवन् ! मैं अत्यंत दरिद्र हूं। खाने-पीने के तीन पैर होते हैं। बीच का पैर दोनों के लिए सामान्य होता के लिए भी कुछ नहीं है। परिव्राजक ने कहा मेरे साथ रहो। है और एक-एक पैर व्यक्तिगत। वे एक-दूसरे के प्रति बड़ी मैं तुम्हें आजीविका दूंगा। अब वह परिव्राजक के साथ छांया की सावधानी बरतते हैं, सतत जागरूक रहते हैं। भांति रहने लगा। छट्ठी शताब्दी की रचना वसुदेवहिण्डी नामक ग्रन्थ (पृ० वास्तव में परिव्राजक ही दुर्धर्ष चोर था। वह उस रात्री में २४८) में भारंड पक्षी का वर्णन देते हुए लिखा है-ये पक्षी अगडदत्त के साथ एक धनवान् के घर चोरी करने गया। अपार रत्नद्वीप से आते हैं। इनका शरीर बहुत विशाल होता है और धन-संपत्ति चुरा, वह एक यक्ष मंदिर से पांच-सात व्यक्तियों को ये बाघ, रीछ आदि विशालकाय जानवरों का मांस खाते हैं। लेकर आया। सभी उस धन-संपत्ति के साथ नगर के बाहर कल्पसूत्र की किरणावली टीका में भारंड पक्षी का चित्रण आए। परिव्राजक ने कहा-अभी नगर के इस बाह्य उद्यान में निम्न प्रकार से किया गया हैहम सभी विश्राम करें, फिर आगे चलेंगे। सभी सो गए। दिजिह्वा द्विमुखाश्चैकोदरा भिन्नफलंषिणः। अगडदत्त और परिव्राजक जागते हुए अपनी शय्या पर सोए पंचतंत्र के अपरीक्षित कारक में भारंड पक्षी से सम्बन्धित रहे। दूसरे सभी व्यक्ति गाढ़ निद्रा में लीन हो गए। अगडदत्त कथा का उल्लेख हुआ है। उसका प्राग्वर्ती श्लोक यह हैपरिव्राजक की आंख चुरा एक वृक्ष की ओट में जा छुपा। इधर एकोदरा: पृथग्गीवा, अन्योन्यफलभक्षिणः। परिव्राजक उठा। उसने सोए हुए उन सभी व्यक्तियों पर घोर असंहता विनश्यन्ति, मारंडा इव पक्षिणः।। प्रहार कर मौत के घाट उतार दिया। अगडदत्त को बिछौने पर एक सरोवर के तट पर भारण्ड पक्षी का एक युगल रहता न दखकर खाज म निकला। उसका एक वृक्ष का आट म दखा था। एक दिन दोनों पति-पत्नी भोजन की खोज में समुद्र के और उस पर प्रहार करने झपटा। अगडदत्त सावधान था। किनारे-किनारे घूम रहे थे। उन्होंने देखा समुद्र की तरंगों के वेग उसने उसके कंधे पर बलपूर्वक प्रहार किया। चोर मूच्छित हो से प्रवाहित होकर अमत फलों का एक समह तट पर विस्तीर्ण गिर पड़ा। कुछ चेतना आने पर वह बोला-"वत्स! तुम मेरे पडा है। उनमें से बहुत सारे फलों को नर भारण्ड पक्षी खा गया घर जाकर इस तलवार को दिखाना। वहां मेरी बहिन तुम्हें पति रूप में स्वीकार कर लेगी। इतना कह उसने वहीं प्राण छोड़ को सनकर दसरे मख ने कहा अरे भाई! यदि इन फलों में दिए।" इतना स्वाद है तो मुझे भी कुछ चखाओ, जिससे कि यह दूसरी अगडदत्त उसके घर गया। तलवार को देखते ही बहिन जीभ भी उस स्वाद के सख का तनिक अनभव कर सके। यह जान गई कि यह मेरे भाई का हत्यारा है। उसने बदला लेने, उसे सुनकर भारण्ड पक्षी ने कहा-हम दोनों का पेट एक है। मारने का उपाय किया। पर अगडदत्त सावधान था। उसने डदत्त सावधान था। उसन इसलिए एक मुख से खाने पर भी दूसरे को तृप्ति हो ही जाती उसकी चाल सफल नहीं होने दी। वह उसे लेकर राजघर में है। इसलिए और खाने से क्या लाभ ? परन्तु फलों का जो गया। राजा ने बहुत पारितोषिक देकर उसका सम्मान किया। अवशिष्ट भाग है, वह मादा भारण्ड पक्षी को दे देना १३. काल बड़ा घोर (क्रूर) होता है (घोरा मुहुत्ता) चाहिए ताकि वह भी उसका स्वाद ले सके। अवशिष्ट फल स्त्री इन शब्दों द्वारा यह संकेत किया गया है कि प्राणी की को दे दिए गए। परन्तु दूसरे मुंह को यह उचित नहीं लगा। आयु अल्प होती है और मृत्यु का काल अनियमित होता है, न वह सदा उदासीन रहने लगा और येन-केन प्रकारेण इसका जाने कब वह आ जाए और प्राणी को उठा ले जाए। बदला लेना चाहा। एक दिन संयोगवश दूसरे मुख को एक यहां 'मुहूर्त' शब्द से समस्त काल का ग्रहण किया गया विष-फल मिल गया। उसने अमृत-फल खाने वाले मुंह से है। प्राणी की आयु प्रतिपल क्षीण होती है—इस अर्थ में काल कहा-अरे अधर्म और निरपेक्ष ! मुझे आज विष-फल मिला प्रतिपल जीवन का अपहरण करता है इसीलिए उसे घोर-रौद्र है। अब मैं अपने अपमान का बदला लेने के लिए इसे खा कहा है।' रहा हूं। यह सुनकर पहला मुंह बोला-अरे मूर्ख ! ऐसा मत १४. भारण्ड पक्षी (भारंडपक्खी ) कर। ऐसा करने से हम दोनों मर जायेंगे। परन्तु वह नहीं जैन-साहित्य में 'अप्रमत्त अवस्था' को बताने के लिए इस माना और अपमान का बदला लेने के लिए विष-फल खा गया। १. सुखबोधा, पत्र ८४ : घोराः-रौद्राः सततमपि प्राणिनां प्राणापहारित्वात् (ख) बृहवृत्ति, पत्र २१७। मुहूर्ताः-कालविशेषाः, दिवसायुपलक्षणमेतत् । (ग) सुखबोधा, पत्र ६४। २. (क) उत्तराध्ययन चूर्णि, पृष्ठ ११७। Jain Education Intemational For Private & Personal use only www.jainelibrary.org
SR No.003626
Book TitleAgam 30 Mool 03 Uttaradhyayana Sutra Uttarajjhayanani Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2006
Total Pages770
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_uttaradhyayan
File Size25 MB
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