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________________ नमि-प्रव्रज्या १७५ अध्ययन ६:श्लोक २६-४० टि०३१-३६ अनेक अर्थ हैं। यहां इसका अर्थ चन्द्रशाला या जलाशय में अर्थ 'मारकर सर्वस्व का अपहरण करने वाला तथा ग्रन्थि-भेदक निर्मित लघु प्रासाद है। का अर्थ 'गिरह-कट' किया है। ३१. (श्लोक २६) प्रस्तुत लोक में आमोष आदि को द्वितीया विभक्ति का इस श्लोक में राजर्षि ने कहा-"यह घर एक पथिक का बहुवचन मानकर जहां व्याख्या की है, वहां 'उत्साद्य' का विश्रामालय है। जहां मझे जाना है वह स्थान अभी दूर है। पर अध्याहार किया है और वैकल्पिक रूप में सप्तमी का एक वचन मुझे दृढ़ विश्वास है कि मैं वहां पहुंच जाऊंगा और वहां पहंच मानकर भी व्याख्या की है। आमोष आदि का उत्सादन करकर ही मैं अपना घर बनाऊंगा। जिस व्यक्ति को यह संशय होता निग्रहकर अथवा आमोष आदि के होते हुए नगर जो अशान्त है कि मैं अपने अभीष्ट स्थान पर पहुंच सकूगा या नहीं, वही है, उसे शान्त बना, तुम मुनि बन जाना। मार्ग में घर बनाता है।" ३३. (श्लोक ३०) राजर्षि ने कहा-"मुझे मुक्ति-स्थान में जाना है। वहां इस श्लोक में राजर्षि ने वस्तुस्थिति का मर्मोद्घाटन किया पहुंचने के साधन सम्यक्-दर्शन आदि मुझे प्राप्त हो चुके हैं। मैं है। उन्होंने कहा—“मनुष्य में अज्ञान, अहंकार आदि दोष होते उनके सहारे गन्तव्य की ओर प्रयाण कर चुका हूं। फिर मैं यहां हैं। उनके वशीभूत होकर वह निरपराध को भी अपराधी की किसलिए घर बनाऊं ?"२ भांति दण्डित करता है और अज्ञानवश या घूस लेकर अपराधी शान्त्याचार्य ने 'सासय' के संस्कृत रूप 'स्वाश्रय' और को भी छोड़ देता है। अज्ञानी, अहंकारी और लालची मनुष्य 'शाश्वत' किए हैं। स्वाश्रय अर्थात् अपना घर शाश्वत अर्थात् मिथ्यादण्ड का प्रयोग करता है। इससे नगर का क्षेम नहीं हो सकता।" नित्य। यहां ये दोनों अर्थ प्रकरणानुसारी हैं।' 'मिच्छादंडो' मिथ्या का अर्थ 'झूठा' और दण्ड का अर्थ ३२. (श्लोक २८) 'देश-निष्कासन व शारीरिक यातना देना है। इस श्लोक में आमोष, लोमहार, ग्रन्थि-भेद और तस्कर- ३४. सुख पाता है (सुहमेहए) ये चार शब्द विभिन्न प्रकारों से धन चुराने वाले व्यक्तियों के एध' धातु अकर्मक है। इसका अर्थ है- 'वृद्धि होना।' वाचक हैं। तस्कर का अर्थ 'चोर' है। शेष तीन शब्दों के अर्थ धातु अनेकार्थक होते हैं, इस न्याय से इसका अर्थ 'प्राप्त करना' चूर्णि और टीका में समान नहीं हैं। चूर्णि के अनुसार आमोष भी होता है। 'सुहमेहए' अर्थात् सुख को प्राप्त करता है। इसका का अर्थ 'पंथ-मोषक–वटमार, राह में लूट लेने वाला' है। वैकल्पिक अर्थ है-शुभ को बढ़ाता है। लोमहार का अर्थ 'पेल्लणमोषक' है।' यहां पेल्लण का संस्कृत ३५. (श्लोक ३८) रूप सम्भवतः पीडन है। पीडनमोषक अर्थात् पीड़ा पहुंचा कर ब्राह्मण-परम्परा में यज्ञ करना, ब्राह्मणों को भोजन कराना लूटने वाला। सूत्रकृतांग की चूर्णि के अनुसार लोमहार का अर्थ और दान देना-इनका महत्त्वपूर्ण स्थान रहा है। जैन-आगमों है....गुप्त रहकर चोरी करने वाला, लूटने वाला। जो में इनका पूर्व-पक्ष के रूप में कई स्थानों पर उल्लेख हुआ है। युक्तिसुवर्ण-..-यौगिक या नकली सोना बनाकर तथा इसी कोटि के देखें उत्तराध्ययन, १४।६; सूत्रकृतांग, २।६।२६। दुसरे कार्यों द्वारा लोगों को ठगता है, उसे ग्रन्थि-भेदक कहा जाता ३६. (श्लोक ४०) है। टीका में आमोष की केवल व्युत्पत्ति दी गई है। लोमहार का ब्राह्मण ने राजर्षि के सामने यज्ञ, ब्राह्मण-भोजन, दान १. (क) उत्तराध्ययन चूर्णि, पृ० १८३ : वालग्गपोतिया णाम मूतियाओ, केचिदाहुः-जो आगासतलागरस मज्झे खुडलओ पासादो कज्जति। (ख) बृहद्रवृत्ति, पत्र ३१२ : 'वालग्गपोइयातो य' त्ति देशीपदं वलभीवाचकं, ततो वलभीश्च कारयित्वा, अन्ये त्वाकाशतडागमध्यस्थितं क्षुल्लकप्रासादमेव 'वालग्गपोइया य' त्ति देशीपदाभिधेयमाहुः । २. सर्वार्थसिद्धि, पृ० २०८, २०६। ३. बृहदवृत्ति, पत्र ३१२ : रवस्य--आत्मन आश्रयो-वेश्म स्वाश्रयस्तं, यद्वा शाश्वतं--नित्यं, प्रक्रमाद् गृहमेव। ४. उत्तराध्ययन चूर्णि, पृ० १८३ : आमोक्खंतीत्यामोक्खा पंथमोषका इत्यर्थः। ५. वहीं चूर्णि, पृ० १८३ : लोमहारा णाम पेल्लणमोसगा। सूत्रकृतांग चूर्णि, पृ०३७७ : जे अदीसंता चोराः हरन्ति ते लोमहारा, वुच्चंति। ७. उत्तराध्ययन चूर्णि, पृ० १८३ : ग्रन्थि भिदंति ग्रन्थिभेदका, जुत्तिसुवण्णगादीहिं। बृहद्वृत्ति, पत्र ३१२ : आ---समन्तात् मुण्णन्ति--स्तैन्यं कुर्वन्तीत्यामोषाः । वही, पत्र ३१२: लोमानि---रोमाणि हरन्ति-अपनयन्ति प्राणिनां ये ते लोमहागः। १०. बृहद्वृत्ति, पत्र ३१२ : ग्रन्थि-द्रव्यसम्बन्धिनं भिन्ति-घुर्घरकद्वि कर्तिकादिना विदारयन्तीति ग्रन्थिभेदाः। ११. (क) वृहवृत्ति, पत्र ३१३ : 'मिथ्या' व्यलीकः, किमुक्तं भवति?-- अनपराधित्वज्ञानाहंकारादिहेतुभिरपराधिष्विवादण्डनं दण्डः देशत्यागशरीरनिग्रहादिः। (ख) उत्तराध्ययन चूर्णि, पृ० १८४ : लंचापाशैः (पक्षः) कारकमपि मुंचति। १२. वृहद्वृत्ति, पत्र ३१४ : सुखम् एकान्तिकात्यन्तिकमुक्तिसुखात्मकम, एधते इत्यनेकार्थत्वाद् धातूनां प्राप्नोति, अथवा सुहमेहए त्ति शुभं-पुण्यमेधते अन्तर्भावितण्यर्थत्वात् वृन्द्रिं नयति। १३. (क) पद्मपुराण, १८४३७ : तपः कृते प्रशंसन्ति, त्रेतायां ज्ञानकर्म च। द्वापरे यामेवाहुर्दानमेकं कली युगे।। (ख) मनुस्मृति, २०२८ : स्वाध्यायेन व्रतोंमेस्वैविद्येनेज्यया सुतैः । महायज्ञैश्च यज्ञैश्च ब्राह्मीयं क्रियते तनुः ।। Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003626
Book TitleAgam 30 Mool 03 Uttaradhyayana Sutra Uttarajjhayanani Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2006
Total Pages770
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_uttaradhyayan
File Size25 MB
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