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उत्तरज्झयणाणि
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और भोग- सेवन ये चार प्रश्न उपस्थित किये थे । राजर्षि ने उनमें से केवल एक दान के प्रश्न का उत्तर दिया, शेष प्रश्नों के उत्तर इसी में गर्भित हैं।
शान्त्याचार्य ने लिखा है कि गो-दान सबसे अधिक प्रचलित है, इसलिए उसे प्रधानता दी है। यह यज्ञ आदि का उपलक्षण है।' इस श्लोक में संयम को श्रेय कहा है। यज्ञ आदि प्रेय हैं, सावध हैं, यह स्वयं फलित हो जाता है। टीकाकार के शब्दों में "यज्ञ इसलिए सावद्य है कि उसमें पशु-वथ होता है, स्थावर जीवों की भी हिंसा होती है। साधु को उसके योग्य अशन-पान और धर्मोपकरण दिए जाते हैं, वह धर्म-दान है। इसके अतिरिक्त जो सुवर्ण दान, गोदान, भूमि दान आदि है वे प्राणियों के विनाश के हेतु हैं इसलिए सावद्य हैं और भोग तो सावद्य हैं ही।”
प्रतिवादी ने कहा- -यज्ञ, दान आदि प्राणियों के प्रीतिकर हैं, इसलिए वे सावद्य नहीं हैं। आचार्य ने कहा- यह हेतु सही नहीं है। जो सावद्य है वह प्राणियों के लिए प्रीतिकर नहीं होता, जैसे- हिंसा आदि । यज्ञ आदि सावद्य हैं, इसलिए वे प्रीतिकर नहीं हैं ।
३७. पोषध में रत (पोसहरओ)
जो अनुष्ठान धर्म की पुष्टि करता है वह पोषध कहलाता है । यह पर्वतिथियों— अष्टमी, चतुर्दशी, पूर्णिमा, अमावस्या में तपस्थापूर्वक किया जाने वाला अनुष्ठान विशेष है। आससेन ने कहा है
'सर्वेष्वपि तपोयोगः प्रशस्त: कालपर्वसु । अष्टम्यां पञ्चदश्यां व नियतं पोषयं वसेत् ॥ *
9.
उपलक्षण का अर्थ है-शब्द की वह शक्ति जिससे निर्दिष्ट वस्तु के अतिरिक्त उस तरह की और वस्तुओं का भी बोध हो । २. वृहद्वृत्ति पत्र ३१५ गोदानं चेह यागाद्युपलक्षणम्, अतिप्रभूतजनाचरितमित्युपात्तम् एवं च संयमस्य प्रशस्यतरत्वमभिदधता यागादीनां सावद्यत्वमर्थादावेदितं तथा च यज्ञप्रणेतृभिरुक्तम्
षट् शतानि नियुज्यन्ते, पशूनां मध्यमेऽहनि ।
अश्वमेधस्य वचनान्न्यूनानि पशुभिरित्रभिः ।। इयत्पशुवधे च कथमसावद्यता नाम ?, तथा दानान्यप्यशनादिविषयाणि धम्र्मोपकरणगोचराणि च धर्माय वर्ण्यन्ते, आह
अशनादीनि दानानि, धम्र्मोपकरणानि च ।
साधुभ्यः साधुयोग्यानि देयानि विधिना बुधैः ।।
शेषाणि तु सुवर्णगोभूम्यादीनि प्राण्युपमर्दहेतुतया सावद्यान्येव, भोगानां तु सावद्यत्वं सुप्रसिद्धं । तथा च प्राणिप्रीतिकरत्वादित्यसिद्ध हेतु:, प्रयोगश्चयत्सावद्यं न तत् प्राणिप्रीतिकरं यथा हिंसादि, सावधानि च यागादीनि । ३. वृहद्वृत्ति, पत्र ३१५ ।
४.
महाभारत, अनुशासनपर्व, अध्याय १४१ : शीलवृत्तविनीतस्य निगृहीतेन्द्रियस्य च ।। आर्जवे वर्तमानस्य सर्वभूतहितैषिणः । प्रियातिथेश्च क्षान्तस्य धर्मार्जितधनस्य च ।। गृहाश्रमपदस्थस्य किमन्यैः कृत्यमाश्रमैः । यथा मातरमाश्रित्य सर्वे जीवन्ति जन्तवः ।। तथा गृहाश्रमं प्राप्य सर्वे जीवन्ति चाश्रमाः ।
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अध्ययन ६ : श्लोक ४२ टि० ३७-३८
विशेष विवरण के लिए देखें-- ५ १३३ पोसहं दुहओपक्खं । ३८. (श्लोक ४२ )
ब्राह्मण परम्परा में संन्यास की अपेक्षा गृहस्थाश्रम का अधिक महत्त्व रहा है। महाभारत में बताया गया है कि जो शील और सदाचार से विनीत है, जिसने अपनी इन्द्रियों को काबू में कर रखा है, जो सरलतापूर्वक बर्ताव करता है और समस्त प्राणियों का हितैषी है, जिसको अतिथि प्रिय है, जो क्षमाशील है. जिसने धर्मपूर्वक धन का उपार्जन किया है ऐसे गृहस्थ के लिए अन्य आश्रमों की क्या आवश्यकता ? जैसे सभी जीव माता का सहारा लेकर जीवन धारण करते हैं, उसी प्रकार सभी आश्रम गृहस्थ आश्रम का आश्रय लेकर ही जीवन यापन करते हैं। महर्षि मनु ने भी गृही को 'ज्येष्ठाश्रम' कहा है। उसकी ज्येष्ठता इसलिए है कि शेष तीनों आश्रमों को वही धारणा करता है। इस गुरुतम उत्तरदायित्व की मान्यता को ध्यान में रखकर सूत्रकार ने गार्हस्थ्य के लिए 'घोराश्रम' शब्द का प्रयोग किया है। चूर्णिकार ने इस भावना को अभिव्यक्त करते हुए लिखा है कि प्रव्रज्या का पालन करना सरल है, किन्तु गृहस्थाश्रम चलाना बहुत कठिन है क्योंकि शेष सब आश्रम वाले उसी पर निर्भर रहते हैं ।"
चूर्णिकार ने जो 'तर्कयन्ति' का प्रयोग किया है, वह सहज ही 'तर्कयन्ति गृहाश्रमम्' महाभारत के इस चरण की याद दिला देता है। आगमकार भी गृहस्थ को श्रमण के जीवन का आश्रयदाता मानते हैं। फिर भी जैन- परम्परा में श्रमण की अपेक्षा गृहस्थाश्रम का स्थान बहुत निम्न है। मैं घर को छोड़ कर कब श्रमण बनूं- यह गृहस्थ का पहला मनोरथ है।"
५. मनुस्मृति, ३१७७, ७८ :
६.
पालयन्ति नराः शूराः, क्लीबाः पाखण्डमाश्रिताः ।।
उत्तराध्ययन चूर्ण, पृ० १८४ : आश्रयन्ति तमित्याश्रयाः, का भावना ? सुखं हि प्रव्रज्या क्रियते, दुःखं गृहाश्रम इति तं हि सर्वाश्रमास्तर्कयन्ति ।
महाभारत, अनुशासनपर्व, अध्याय १४१ : राजानः सर्वपाषण्डाः सर्वे रंगोपजीविनः ।। व्यालग्रहाश्च डम्भाश्च चोरा राजभटास्तथा । सविद्याः सर्वशीलज्ञाः सर्वे वै विचिकित्सकाः ।।
दूराध्वानं प्रपन्नाश्च क्षीणपथ्योदना नराः । एते चान्ये च बहवः तर्कयन्ति गृहाश्रमम् ।।
ठाणं ५ ।१६२ धम्मण्णं चरमाणरस पंच णिरसाद्वाष्णा पं० तं० छक्काया, गणे, राया गाहावती, सरीरं ।
१०. वही, ३१४६७ कया णं अहं मुंडे भवित्ता अगारातो अणगारितं पव्वइरसामि ।
७.
८.
यथा वायुं समाश्रित्य वर्तन्ते सर्वजन्तवः । तथा गृहस्थमाश्रित्य वर्तन्ते सर्व आश्रमाः ।। यस्मात्त्रयो ऽप्याश्रमिणो ज्ञानेनान्नेन चान्वहम् । गृहस्थेनैव धार्यन्ते तस्माज्ज्येष्ठाश्रमो गृही ।।
बृहद्वृत्ति, पत्र ३१५: 'घोरः' अत्यन्तदुरनुचरः, स चासावाश्रमश्च आङिति स्वपरप्रयोजनाभिव्याप्त्या श्राम्यन्ति खेदमनुभवन्त्यरिमन्नितिकृत्वा घोराश्रमो गार्हस्थ्यं तस्यैवाल्पसत्त्वैर्दुष्करत्वात् यत आहु गृहाश्रमसमो धर्मो न भूतो न भविष्यति ।
६.
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