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छत्तीसइमं अज्झयणं : छत्तीसवां अध्ययन
जीवाजीवविभत्ती : जीवाजीवविभक्ति
हिन्दी अनुवाद तुम एकाग्र-मन होकर मेरे पास जीव और अजीव का वह विभाग' सुनो, जिसे जानकर श्रमण संयम में सम्यक् प्रयत्न करता है।
यह लोक जीव और अजीवमय है। जहां अजीव का देश आकाश ही है, उसे अलोक कहा गया है।
संस्कृत छाया जीवाजीवविभक्तिं शृणुत मम एकमनसः इतः। यां ज्ञात्वा श्रमणः सम्यग् यतत संयमे।। जीवाश्चैवाजीवाश्च एष लोको व्याख्यातः। अजीवदेश आकाशः अलोकः स व्याख्यातः।। द्रव्यतः क्षेत्रतश्चैव कालतो भावतस्तथा। प्ररूपणा तेषां भवेत् जीवनामजीवानां च। रूपिणश्चैवाऽरूपिणश्च अजीवा द्विविधा भवेयुः। अरूपिणो दशधोक्ताः रूपिणोऽपि चतुर्विधाः।।
जीव और अजीव की प्ररूपणा द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव-इन चार दृष्टियों से होती है।"
मूल १. जीवाजीवविभत्ति
सुणेह मे एगमणा इओ।। जं जाणिऊण समणे
सम्मं जयइ संजमे ।। २. जीवा चेव अजीवा य
एस लोए वियाहिए। अजीवदेसमागासे अलोए से वियाहिए।। दव्वओ खेत्तओ चेव कालओ भावओ तहा। परूवणा तेसि भवे जीवाणमजीवाण य।। रूविणो चेवरूवी य अजीवा दुविहा भवे। अरूवी दसहा वुत्ता रूविणो वि चउबिहा।। धममत्थिकाए तद्देसे तप्पएसे य आहिए। अहम्मे तस्स देसे य तप्पएसे य आहिए।। आगासे तस्स देसे य तप्पएसे य आहिए। अद्धासमए चेव अरूवी दसहा भवे ।। धम्माधम्मे य दोवेए लोगमित्ता वियाहिया। लोगालोगे य आगासे समए समयखेत्तिए ।। धम्माधम्मागासा तिन्नि वि एए अणाइया। अपज्जवसिया चेव सव्वद्धं तु वियाहिया।।
अजीव दो प्रकार का है-रूपी और अरूपी। अरूपी के दस और रूपी के चार प्रकार हैं।"
धर्मास्तिकायरतद्देशः तत्प्रदेशश्चाख्यातः। अधर्मस्तस्य देशश्च तत्प्रदेशश्चाख्यातः ।।
धर्मास्तिकाय और उसका देश तथा प्रदेश, अधर्मास्तिकाय और उसका देश तथा प्रदेश,
आकाशास्तिकाय और उसका देश तथा प्रदेश तथा एक अध्वासमय (काल)—ये दस भेद अरूपी अजीव के होते हैं।
आकाशस्तस्य देशश्च तत्प्रदेशश्चाख्यातः। अध्वासमयश्चैव अरूपिणो दशधा भवेयुः।। धर्माधर्मों व द्वावप्येतौ लोकमात्रौ व्याख्यातौ। लोकालोके चाकाशः समयः समय-क्षेत्रिकः।। धर्माऽधर्माकाशानि त्रीण्यप्येतान्यनादीनि। अपर्यवसितानि चैव सर्वावं तु व्याख्यातानि।।
धर्मास्तिकाय और अधर्मास्तिकाय--ये दोनों लोकप्रमाण हैं। आकाश लोक और अलोक दोनों में व्यापत हैं। समय समय-क्षेत्र (मनुष्य लोक) में ही होता है।
धर्म, अधर्म और आकाश ये तीन द्रव्य अनादि-अनन्त और सर्वकालिक होते हैं।
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