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जीवाजीवविभक्ति
अध्ययन ३६ : श्लोक ६-१७
६.
६०१ समयोऽपि संततिं प्राप्य एवमेव व्याख्यातः। आदेशं प्राप्य सादिकः सपर्यवसितोऽपि च।।
समए वि संतइ पप्प एवमेव वियाहिए। आएस पप्प साईए सपज्जवसिए वि य।।
प्रवाह की अपेक्षा समय अनादि-अनन्त है। एक-एक क्षण की अपेक्षा से वह सादि-सान्त है।
१०.
रूपी पुद्गल के चार भेद होते हैं-१. स्कन्ध, २. स्कन्ध-देश, ३. स्कन्ध-प्रदेश और ४. परमाणु।
खंधा य खंधदेसा य तप्पएसा तहेव य। परमाणुणो य बोद्धव्वा रूविणो य चउविहा।।
स्कन्धाश्च स्कन्धदेशाश्च तत्प्रदेशास्तथैव च। परमाणवश्च बोद्धव्याः रूपिणश्च चतुर्विधा ।।
११. एगत्तेण पुहत्तेण
खंधा य परमाणुणो। लोएगदेसे लोए य भइयव्वा ते उ खेत्तओ।।।
एकत्वेन पृथक्चेन स्कन्धाश्च परमाणवः। लोकैकदेशे लोके च भक्तव्यास्ते तु क्षेत्रतः।।
अनेक परमाणुओं में एकत्व से स्कन्ध बनता है और उसका पृथक्त्व होने से परमाणु बनते हैं। क्षेत्र की अपेक्षा से वे (स्कन्ध) लोक के एक देश और समूचे लोक में भाज्य है—असंख्य विकल्प युक्त है।
१२. संतई पप्प तेणाई
अपज्जवसिया वि य। ठिइं पडुच्च साईया सपज्जवसिया वि य।।
सन्ततिं प्राप्य ते अनादयः अपर्यवसिता अपि च। स्थितिं प्रतीत्य सादिकाः सपर्यवसिता अपि च।।
वे (स्कन्ध और परमाणु) प्रवाह की अपेक्षा से अनादि-अनन्त हैं तथा स्थिति (एक क्षेत्र में रहने) की अपेक्षा से सादि-सान्त हैं।
रूपी अजीवों (पुद्गलों) की स्थिति जघन्यतः एक समय और उत्कृष्टतः असंख्यात काल की होती है।
१३. असंखकालमुक्कोसं
एगं समयं जहन्निया। अजीवाण य रूवीणं ठिई एसा वियाहिया।।
असङ्ख्यकालमुत्कर्ष एक समयं जघन्यका। अजीवानां च रूपिणां स्थितिरेषा व्याख्याता।।
१४. अणंतकालमुक्कोसं
एगं समयं जहन्नयं। अजीवाण य रूवीण अंतरेयं वियाहियं ।।
अनन्तकालमुत्कर्ष एक समयं जघन्यकम्। अजीवानां च रूपिणां अन्तरमिदं व्याख्यातम् ।।
उनका अन्तर (स्वस्थान में स्खलित होकर वापिस नहीं आने तक का काल) जघन्यतः एक समय और उत्कृष्टतः अनन्त काल का होता है।
१५.
वण्णओ गंधओ चेव रसओ फासओ तहा। संठाणओ य विन्नेओ परिणामो तेसि पंचहा।।
वर्णतो गन्धतश्चैव रसतः स्पर्शतस्तथा। संस्थानतश्च विजेयः परिणामस्तेषां पंचधा।।
वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श और संस्थान की अपेक्षा से उनका परिणमन पांच प्रकार का होता है।"
वर्णतः परिणता येतु पंचधा ते प्रकीर्तिताः। कृष्णा नीलाश्च लोहिताः हारिद्राः शुक्लास्तथा।।
वर्ण की अपेक्षा से उनकी परिणति पांच प्रकार की होती है—१. कृष्ण, २. नील, ३. रक्त, ४. पीत और ५. शुक्ल।
१६. वण्णओ परिणया जे उ
पंचहा ते पकित्तिया। किण्हा नीला च लोहिया
हालिद्दा सुक्किला तहा।। १७. गंधओ परिणया जे उ .
दुविहा ते वियाहिया। सुब्भिगंधपरिणामा दुब्मिगंधा तहेव य।।
गन्धतः परिणता ये तु द्विविधास्ते व्याख्याताः। सुरभिगन्धपरिणामाः दुर्गन्धास्तथैव च।।
गन्ध की अपेक्षा से उनकी परिणति दो प्रकार की होती है—१. सुगन्ध और २. दुर्गन्ध ।
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