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________________ परीषह-प्रविभक्ति ३१ अध्ययन २ : आमुख वेदनीय अर्थ नग्नता करते हैं) जिनकल्पी मुनियों के लिये तथा ऐसे १७. चर्या वेदनीय स्थविरकल्पी मुनियों के लिये ग्राह्य है, जिन्हे वस्त्र मिलना १८. शय्या अत्यन्त दुर्लभ है, जिनके पास वस्त्रों का अभाव है, जिनके वस्त्र १६. वध वेदनीय जीर्ण हो गये हैं अथवा जो वर्षा आदि के बिना वस्त्र-धारण नहीं २०. रोग वेदनीय कर सकते' और तृणस्पर्श-परीषह केवल जिनकल्पी मुनियों के २१. तृण-स्पर्श वेदनीय लिए ग्राह्य है। २२. जल्ल वेदनीय प्रवचनसारोद्धार की टीका में सर्वथा नग्न रहना तथा ये सभी परीषह नौवें गुणस्थान तक हो सकते हैं। दशवें चिकित्सा न कराना, केवल जिनकल्पी मुनि के लिये ही बतलाया गुणस्थान में चारित्र-मोहनीय कर्म के उदय से होने वाले अरति आदि सात परीषह तथा दर्शन-मोहनीय से उत्पन्न दर्शन-परीषह व्याख्याकारों ने सभी परीषहों के साथ कथाएं जोड़कर उन्हें को छोड़कर शेष चौदह परीषह होते हैं। छद्मस्थ वीतराग अर्थात् सुबोध बनाया है। कथाओं का संकेत नियुक्ति में भी प्राप्त है। ग्यारहवें-बारहवें गुणस्थानवर्ती मुनि में भी ये ही चौदह परीषह परीषह-उत्पत्ति के कारण इस प्रकार बताये गये हैं :- हो सकते हैं। केवली में मात्र वेदनीय-कर्म के उदय से होने वाले परीषह उत्पत्ति के कारण कर्म ग्यारह परीषह पाये जाते हैं।' १. प्रज्ञा ज्ञानावरणीय तत्त्वार्थ सूत्र में एक साथ उन्नीस परीषह माने हैं। जैसे--- २. अज्ञान ज्ञानावरणीय शीत और उष्ण में से कोई एक होता है। शय्या-परीषह के होने ३. अलाभ अंतराय पर निषद्या और चर्या-परीषह नहीं होते। निषद्या-परीषह होने ४. अरति चारित्र मोहनीय पर शय्या और चर्या-परीषह नहीं होते। ५. अचेल चारित्र मोहनीय बौद्ध-भिक्षु काय-क्लेश को महत्त्व नहीं देते किन्तु ६. स्त्री चारित्र मोहनीय परीषह-सहन की स्थिति को वे भी अस्वीकार नहीं करते। स्वयं ७. निषद्या चारित्र मोहनीय महात्मा बुद्ध ने कहा है-"मुनि शीत, उष्ण, क्षुधा, पिपासा, ८. याचना चारित्र मोहनीय वात, आतप, देश और सरीसृप का सामना कर खग्ग-विषाण ६. आक्रोश चारित्र मोहनीय की तरह अकेला विहरण करे।" १०. सत्कार-पुरस्कार चारित्र मोहनीय आचारांग नियुक्ति में परीषह के दो विभाग हैं :११. दर्शन दर्शन मोहनीय १. शीत-मन्द परिणाम वाले । जैसे—स्त्री-परीषह और १२. क्षुधा वेदनीय सत्कार-परीषह। ये दो अनुकूल परीषह हैं। १३. पिपासा वेदनीय २. उष्ण-तीव्र परिणाम वाले। शेष बीस। ये प्रतिकूल १४. शीत वेदनीय परीषह हैं। १५. उष्ण वेदनीय प्रस्तुत अध्ययन में परीषहों के विवेचन के रूप में १६. दंश-मशक वेदनीय मुनि-चर्या का बहुत ही महत्त्वपूर्ण निरूपण हुआ है। १. बृहद्वृत्ति, पत्र ६२,६३ : जिनकल्पप्रतिपत्ती स्थविरकल्पेऽपि दुर्लभवरवादी दसणमोहे दसणपरीसहो नियमसो भवे इक्को। . वा सर्वथा चेलाभावेन सति वा चेले विना वर्षादिनिमित्तमप्रावरणेन सेसा परीसहा खलु इक्कारस वेयणीज्जमि।। जीर्णादिवस्त्रतया वा 'अचेलक' इति अवस्त्रोऽपि भवति। पंचेव आणुपुची चरिया सिज्जा बहे च (य) रोगे य। २. वही, पत्र १२२ जिनकल्पिकापेक्षं चैतत्, स्थविरकल्पिकाश्च तणफासजल्लमेव व इक्कारस वेयणीज्जमि।। सापेक्षसंयमत्वात्सेवन्तेऽपीति। ५. वही, गाथा ७८ । ३. (क) प्रवचनसारोद्धार, पत्र १६३ : गा. ६८५ की वृत्ति : चेलस्य अभावो ६. (क) तत्त्वार्थ सूत्र, ६/१७ : एकादयो भाज्या युगपदेकस्मिन्नेकोनविंशतिः। अचेलं जिनकल्पिकादीनां...... | (ख) तत्त्वार्थवृत्ति (श्रुतसागरीय), पृ. २६६ : शीतोष्णपरीषहयोर्मध्ये (ख) वही, पत्र १६४ : ६८६ की वृत्ति : ज्वरकासश्वासादिके सत्यापि अन्यतरो भवति शीतमुष्णो वा। शय्यापरीषहे सति निषद्याचर्ये न भवतः, न गच्छनिर्गता जिनकल्पिकादयश्चिकित्साविधापने प्रवर्तन्ते। निषद्यापरीषहे शय्याचार्ये द्वौ न भवतः, चर्यापरीषहे शय्यानिषधे द्वौ न उत्तराध्ययन नियुक्ति, गाथा ७३-७८ : भवतः । इति त्रयाणामसम्भवे एकोनविंशतिरेकस्मिन् युगपद् भवति। णाणावरणे येए मोहंमिय अन्तराइए चेव। ७. सुत्तनिपात, उरवग्ग, ३१८ : एएसुं बावीसं परीसहा हुंति णायव्या।। सीतं च उण्हं च खुदं पीपासं, वातातपे इंससिरिसपे च। पन्नान्नाणपरिसहा णाणावरणमि हुति दुन्नेए। सब्बानिपेतानि अभिसंभवित्वा, एको चरे खग्गविसाणकप्पो।। इक्को य अंतराए अलाहपरीसहो होई।। आधारांग नियुक्ति, गाथा २०२,२०३ : अरई अचेल इत्थी निसीहिया जायणा य अक्कोसे। इत्थी सक्कार परिसहा य, दो भाव-सीयला एए। सक्कारपुरक्कारे चरित्तमोहंपि सत्तेए।। सेसा बीसं उपहा, परीसहा होति णायव्वा ।। अरईए दुगुंछाए पुंवेय भयस्स चेव माणस्स। जे तिब्दप्परिणामा, परीसहा ते भवन्ति उण्हा उ। कोहस्स य लोहस्स य उदएण परीसहा सत्त ।। जे मन्दप्परिणामा, परीसहा ते भवे सीया।। Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003626
Book TitleAgam 30 Mool 03 Uttaradhyayana Sutra Uttarajjhayanani Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2006
Total Pages770
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_uttaradhyayan
File Size25 MB
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