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________________ ३० उत्तरज्झयणाणि अध्ययन २ : आमुख का क्वचित् श्रुति के रूप में उल्लेख किया है। ममातिशयवद्बोधनं न सञ्जायते उत्कृष्ट श्रुतव्रतादिविधायिनां तत्त्वार्थसूत्र (EIE) में 'अचेल' के स्थान पर 'नाग्नय' किल प्रातिहार्यविशेषाः प्रादुर्भवन्ति, इति श्रुतिर्मिथ्या वर्तते परीषह का उल्लेख है और दर्शन-परीषह के स्थान पर दीक्षेयं निष्फला व्रतधारणंच फल्गु एव वर्तते इति सम्यग्दर्शनविशुद्धिअनशन-परीषह का। प्रवचनसारोद्धार (गाथा ६८६) में दर्शन-परीषह सन्निथानादेवं न मनसि करोति तस्य मुनेरदर्शनपरीषहजयो के स्थान में सम्यक्त्व-परीषह माना गया है। दर्शन और भवतीत्यवसानीयम्। सम्यक्त्व यह केवल शब्द-भेद है। अर्थ :-चिर दीक्षित होने पर भी अवधिज्ञान या ऋद्धि अचेल और नाग्न्य में थोड़ा भेद भी है। अचेल का आदि की प्राप्ति न होने पर जो मुनि विचार नहीं करता है कि अर्थ है-१. नग्नता और २. फटे हुए या अल्पमूल्य वाले यह दीक्षा निष्फल है, व्रतों का धारण करना व्यर्थ है इत्यादि, उस वस्त्र। मुनि के अदर्शन-परीषह-जय होता है। तत्त्वार्थसूत्र श्रुतसागरीय वृत्ति में प्रज्ञा-परीषह और दर्शन-परीषह :अदर्शन-परीषह की व्याख्या मूल उत्तराध्ययन के प्रज्ञा और णत्थि णूणं परे लोए, इड्ढी वावि तवस्सिणो। दर्शन-परीषह से भिन्न है। उत्तराध्ययन (२।४२) में जो अदुवा वंचिओ मि त्ति, इइ भिक्खू ण चिंतए ।।४४।। अज्ञान-परीषह की व्याख्या है वह श्रुतसागरीय में अदर्शन की अभू जिणा अस्थि जिणा, अदुवावि भविस्सइ। व्याख्या है। मुसं ते एवमाहंसु, इइ भिक्खू न चिंतए।।४५।। तत्त्वार्थवृत्ति (श्रुतसागरीय) पृ. २९५ अर्थ :--निश्चय ही परलोक नहीं है, तपस्वी की ऋद्धि प्रज्ञा-परीषह : भी नहीं है अथवा मैं ठगा गया हूं-भिक्षु ऐसा चिन्तन न करे। योग मुनिस्तर्कव्याकरणच्छन्दोलंकारसारसाहित्याध्यात्मशा जिन हुये थे, जिन हैं और जिन होंगे ऐसा जो कहते हैं वे झूट स्त्रादिनिधाननांगपूर्वप्रकीर्णकनिपूणोऽपि सन ज्ञानमदं न करोति बोलत है-भिक्षु ऐसा चिन्तन न करे। ममाग्रतः प्रवादिनः सिंहशब्दश्रवणात वनगजा इव पलायन्ते... है अज्ञान-परीषह :......मदं नाधत्ते स मुनिः प्रज्ञापरीषहविजयी भवति। निरट्ठगम्मि विरओ, मेहुणाओ सुसंवुडो। अर्थ :-जो मुनि तर्क, व्याकरण, साहित्य, छन्द, अलंकार, जो सक्खं नाभिजाणामि, थमं कल्लाण पावगं।।४२।। अध्यात्मशास्त्र आदि विद्याओं में निपुन होने पर भी ज्ञान का मद तवोवहाणमादाय, पडिम पडिवज्जओ। नहीं करता है तथा जो इस बात का घमंड नहीं करता है कि एवं पि विरहओ, मे छउमं ण णियट्टइ।।४३ ।। प्रवादी मेरे सामने से उसी प्रकार भाग जाते हैं जिस प्रकार सिंह अर्थ :-मैं मैथुन से निवृत्त हुआ, इन्द्रिय और मन का के शब्द को सुनकर हाथी भाग जाते हैं, उस मुनि के मैंने संवरण किया-यह सब निरर्थक है। क्योंकि धर्म कल्याणकारी प्रज्ञा-परीषह-जय होता है। है या पापकारी—यह मैं साक्षात् नहीं जानता। उत्तराध्ययन अ. २ तपस्या और उपधान को स्वीकार करता हूं, प्रतिमा का प्रज्ञा-परीषह : पालन करता हूं इस प्रकार विशेष चर्या से विहरण करने पर से नूणं मए पुव्वं, कम्माणाणफला कडा। भी मेरा छद्म (ज्ञानावरण आदि कर्म) निवर्तित नहीं हो रहा जेणाहं नाभिजाणामि, पुट्ठो केणइ कण्हुई।।४०।। है—ऐसा चिन्तन न करे। अह पच्छा उइज्जति, कम्माणाणफलाकडा। - मूलाचार में विचिकित्सा के दो भेद किये हैं-(१) द्रव्यएवमस्सासि अप्पाणं, णच्चा कम्मविवागयं ।।४।। विचिकित्सा और (२) भाव-विचिकित्सा। भाव-विचिकित्सा के अर्थ :--निश्चय ही मैंने पूर्व काल में अज्ञान-रूप फल अंतर्गत बाईस परीषहों का उल्लेख हआ है। उनमें अरति के देने वाले कर्म किये हैं। उन्हीं के कारण मैं किसी से कछ पछे स्थान पर अरति-रति, याचना के स्थान पर अयाचना और जान पर भी कुछ नहीं जानता---उत्तर देना नहीं जानता। पहले दर्शन के स्थान पर अदर्शन-परीषह है। किये हुए अज्ञान-रूप फल देने वाले कर्म पकने के पश्चात् उदय इन बाईस परीषहों के स्वरूप के अध्ययन से यह ज्ञात में आते हैं इस प्रकार कर्म के विपाक को जानकर आत्मा को होता है कि कई परीषह सामान्य व्यक्तियों के लिए नहीं थे। वे आश्वासन दे। जिनकल्प-प्रतिमा को स्वीकार करने वाले विशेष संहनन और अदर्शन-परीषह : धृति-युक्त मुनियों के लिये थे। शान्त्याचार्य ने भी इस ओर संकेत यो मुनिः......चिरदीक्षितोऽपि सन्नेवं न चिन्तयति अद्यापि किया है। उनके अनुसार अचेल-परीषह (जहां हम अचेल का १. प्रवचनसारोद्धार, पत्र १६३, गा. ६८५ की वृत्ति : चेलस्य अभावो छुहतण्हा सीदुण्हा दंसमसयमचेलभावो य। अचेल जिनकल्पिकादीनां अन्येषां तु यतीनां भिन्न स्फुटितं अल्पमूल्यं च अरदि रदि इत्थि चरिया णिसीधिया सेज्ज अक्कोसो।। चेलमप्यचेलमुच्यते। वधजायणं अलाहो रोग तण'फास जल्लसक्कारो। २. मूलाचार, ५।७२,७३ : तह चेव पण्णपरिसह अण्णाणमदंसणं खमणं ।। Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003626
Book TitleAgam 30 Mool 03 Uttaradhyayana Sutra Uttarajjhayanani Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2006
Total Pages770
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_uttaradhyayan
File Size25 MB
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