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उत्तरज्झयणाणि
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अध्ययन ३० : श्लोक १२-१३ टि० ४
अधिकारी वे होते हैं
आदि विकृतियों का त्याग अथवा आचाम्ल किया जाता है। सूत्र १. जो दुश्चिकित्स्य व्याधि (संयम को छोड़े बिना के प्रथम चार वर्षों में विचित्र तप करने का उल्लेख नहीं है।
जिसका प्रतिकार करना संभव न हो) से किन्तु शान्त्याचार्य ने निशीथ चूर्णि के आधार पर इसका अर्थ पीड़ित हो।
यह किया है कि संलेखना करने वाला विचित्र तप के पारण में २. जो श्रामण्य-योग की हानि करने वाली जरा से विकृतियों का परित्याग करे। प्रवचनसारोद्धार में भी यही क्रम अभिभूत हो।
है। प्रथम चार वर्षों में विचित्र तप किया जाता है और उसके ३. जो देव, मनुष्य या तिर्यञ्च सम्बन्धी उपसर्गों से पारण में यथेष्ट भोजन किया जाता है। दूसरे चार वर्षों में उपद्रुत हो।
विचित्र तप किया जाता है, किन्तु पारण में विकृति का जिसके चारित्र-विनाश के लिए अनुकूल उपसर्ग परित्याग किया जाता है। आगे का क्रम समान है। किए जा रहे हों।
उत्तराध्ययन (३६२५१-२५५) के अनुसार इस संलेखना ५. दुष्काल में जिसे शुद्ध भिक्षा न मिले।
का पूर्ण क्रम इस प्रकार है६. जो गहन अटवी में दिग्मूढ़ हो जाए और मार्ग हाथ प्रथम चार वर्ष-विकृति का परित्याग अथवा आचाम्ल। न लगे।
द्वितीय चार वर्ष-विचित्र तप-उपवास, बेला, तेला ७. जिसके चक्षु और श्रोत्र दुर्बल तथा जंघाबल क्षीण आदि और पारण में यथेष्ट भोजन।
हो जाए और जो विहार करने में समर्थ न हो। नौवें और दसवें वर्ष-एकान्तर उपवास और पारण में उक्त व इन जैसे अन्य कारण उपस्थित होने पर व्यक्ति आचाम्ल अनशन का अधिकारी होता है।'
ग्यारहवें वर्ष की प्रथम छमाही-उपवास या बेला। जिस मुनि का चारित्र निरतिचार पल रहा हो, संलेखना ग्यारहवें वर्ष की द्वितीय छमाही-विकृष्ट तप-तेला, कराने वाले आचार्य (निर्णायक आचार्य) भविष्य में सुलभ हों, चोला आदि तप। दुर्भिक्ष का भय न हो, वैसी स्थिति में वह अनशन का समूचे ग्यारहवें वर्ष में पारण के दिन-आचाम्ल । प्रथम अनधिकारी है। विशिष्ट स्थिति उत्पन्न हुए बिना जो अनशन छमाही में आचाम्ल के दिन ऊनोदरी की जाती है और दूसरी करे तो समझना चाहिए कि वह चारित्र से खिन्न है। छमाही में उस दिन पेट भर भोजन किया जाता है। संलेखना
बारहवें वर्ष में—कोटि-संहित आचाम्ल अर्थात् निरन्तर आचारांग में बताया गया है कि जब मुनि को यह आचाम्ल अथवा प्रथम दिन आचाम्ल, दूसरे दिन कोई दूसरा अनुभव हो कि इस शरीर को धारण करने में मैं ग्लान हो रहा तप और तीसरे दिन फिर आचाम्ल।० हूं, तब वह क्रम से आहार का संकोच करे, संलेखना करे- बारह वर्ष के अन्त में अर्द्ध-मासिक या मासिक अनशन, आहार संकोच के द्वारा शरीर को कृश करे।'
भक्त-परिज्ञा आदि।" निशीथ चूर्णि के अनुसार बारहवें वर्ष में संलेखना के काल
क्रमशः आहार की इस प्रकार कमी की जाती है जिससे आहार संलेखना के तीन काल हैं—(9) जघन्य-छह मास का और आयु एक साथ ही समाप्त हो । उस वर्ष के अन्तिम चार काल (२) मध्यम—एक वर्ष का काल और (३) उत्कृष्ट-१२ महीनों में मुंह में तैल भरकर रखा जाता है। मुखयंत्र विसंवादी वर्ष का काल।
न हो-नमस्कार मंत्र आदि का उच्चारण करने में असमर्थ न उत्कृष्ट संलेखना के काल में प्रथम चार वर्षों में दूध, घी हो, यह उसका प्रयोजन है।२
१. मूलाराधना, २७१-७४। २. वही, २७५-७६ । ३. आयारो, ८१०५, १०६ । ४. बृहद्वृत्ति, पत्र ७०६ । ५. प्रवचनसादोद्धार, गाथा ८७५-८७७।
बृहद्वृत्ति, पत्र ७०६ : द्वितीये वर्षचतुष्के "विचित्रं तु' इति विचित्रमेव चतुर्थषष्टाष्टमादिरूपं तपश्चरेत्, अत्र च पारणके सम्प्रदाय:"उग्गमविसुद्धं सव्वं कप्पणिज्जं पारेति।" प्रवचनसारोद्धार, वृत्ति पत्र २५४ : विकृष्ट-अष्टमदशमद्वादशादिकं
तपःकर्म भवति। ८. वही, वृत्ति पत्र २५४ : पारणके तु परिमितं-किंचिदूनो
दरतासम्पन्नमाचाम्लं करोति। ६. वही, वृत्ति पत्र २५४ : पारणके तु मा शीघ्रमेव मरणं यासिषमितिकृत्वा
परिपूर्णधाण्या आचाम्लं करोति, न पुनरूनोदरतयेति। १०, बृहद्वृत्ति, पत्र ७०६ : कोट्यौ-अग्रे प्रत्याख्यानाधन्तकोणरूपे सहिते
मिलिते यस्मिस्तत्कोटीसहितं, किमुक्तं भवति?-विवक्षितदिने प्रातराचाम्ल प्रत्याख्याय तच्चाहोरात्रं प्रतिपाल्यं, पुनर्द्वितीयेऽहूनि आचाम्लमेव प्रत्याचष्टे, ततो द्वितीयस्यारम्भकोटिराद्यस्य तु पर्यन्तकोटिरुभे अपि मिलिते भवत इति तत्कोटीसहितमुच्यते, अन्ये त्वाः-आचाम्लमेकस्मिन् दिने कृत्वा द्वितीयदिने च तपोऽन्तरमनुष्ठाय पुनस्तृतीयदिने आचाम्लमेव कुर्वतः
कोटीसहितमुच्यते। ११. वही, पत्र ७०६-७०७ : 'संवत्सरे' वर्षे प्रक्रमाद् द्वादशे 'मुनिः' साधुः
'मास' त्ति सूत्रत्वान्मासं भूतो मासिकस्तेनैवमार्द्धमासिकेन 'आहारेणन्ति' उपलक्षणत्वादाहारत्यागेन, पाठान्तरतश्च क्षपणेन 'तपः' इति
प्रस्तावाद्भक्तपरिज्ञानादिकमनशनं 'चरेत्।' १२. सभाष्य निशीथचूर्णि, भाग ३, पृ० २६४।
कापना
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