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________________ आमुख और और मुनि को भौदि-आदि कार के लिा इस अध्ययन का नाम 'जन्नइज्जं'–'यज्ञीय' है। इसका हो, भोजन पाने के लिए नहीं किन्तु याजकों को सही ज्ञान मुख्य विवक्षित विषय 'यज्ञ' है।' यज्ञ शब्द का अर्थ देव-पूजा कराने के लिए कई तथ्य प्रकट किए। ब्राह्मणों के लक्षण बताए। है। जीव-वथ आदि बाह्य अनुष्ठान के द्वारा किए जाने वाले मुनि के वचन सुन विजयघोष ब्राह्मण सम्बुद्ध हुआ और उनके यज्ञ को जैन परम्परा में द्रव्य (अवास्तविक) यज्ञ कहा है। पास दीक्षित हो गया। सम्यक् आराधना कर दोनों सिद्ध, बुद्ध वास्तविक यज्ञ भाव-यज्ञ होता है। उसका अर्थ है-तप और और मुक्त हो गए। संयम में यतना-अनुष्ठान करना। मुनि को भोजन के लिए, पान के लिए, वस्त्र के लिए, प्रसंगवश इस अध्ययन में (१६वें श्लोक से ३२वें श्लोक वसती के लिए आदि-आदि कारणों से धर्मोपदेश नहीं देना तक) ब्राह्मण के मुख्य गुणों का उल्लेख हुआ है। चाहिए, किन्तु केवल आत्मोद्धार के लिए ही उपदेश देना वाराणसी नगरी में जयघोष और विजयघोष के दो चाहिए। इसी तथ्य को स्पष्टता से व्यक्त करते हुए जयघोष ब्राह्मण रहते थे। वे काश्यप-गोत्रीय थे। वे पूजन-याजन, मुनि ब्राह्मण विजयघोष से कहते हैंअध्ययन-अध्यापन, दान और प्रतिग्रह-इन छह कर्मों में रत “मुनि न अन्न के लिए, न जल के लिए और न किसी और चार वेदों के अध्येता थे। वे दोनों युगल रूप में जन्मे हुए अन्य जीवन-निर्वाह के साधन के लिए, लेकिन मुक्ति के लिए थे। एक बार जयघोष स्नान करने नदी पर गया हुआ था। धर्मोपदेश देते हैं। मुझे भिक्षा से कोई प्रयोजन नहीं। तुम उसने देखा कि एक सर्प मेंढक को निगल रहा है। इतने में एक निष्क्रमण कर मुनि-जीवन को स्वीकार करो।" (श्लो० १०, ३८) कुरर पक्षी वहां आया और सर्प को पकड़ कर खाने लगा। “भोग आसक्ति है और अभोग अनासक्ति। आसक्ति मरणकाल आसन्न होने पर भी सर्प मण्डूक को खाने में रत संसार है और अनासक्ति मोक्ष। मिट्टी के दो गोले हैं-एक था और इधर कम्पायमान सर्प को खाने में कुरर आसक्त था। गीला और दूसरा सूखा। जो गीला होता है वह भित्ति से चिपक इस दृश्य को देख जयघोष उद्विग्न हो उठा। एक दूसरे के जाता है और जो सूखा होता है वह नहीं चिपकता। इसी प्रकार उपघात को देख कर उसका मन वैराग्य से भर गया। वह जो व्यक्ति आसक्ति से भरा है, कर्म-पुद्गल उसके चिपकते हैं प्रतिबुद्ध हो गया। गंगा को पार कर श्रमणों के पास पहुंचा। और जो अनासक्त है, कर्म असके नहीं चिपकते।” (श्लो० ३८ अपने उद्वेग का समाधान पा श्रमण हो गया। से ४१) एक बार मुनि जयघोष 'एक-रात्रिकी' प्रतिमा को स्वीकार “बाह्य-चिन्ह, वेष आदि आंतरिक पवित्रता के द्योतक कर ग्रामानुग्राम विहार करते हुए वाराणसी आए। बहिर्भाग में नहीं हैं। बाह्य-लिंग संप्रदायानुगत अस्तित्व के द्योतक मात्र हैं। एक उद्यान में ठहरे। आज उनके एक महीने की तपस्या का मुंडित होने मात्र से कोई श्रमण नहीं होता। आंकार का जाप पारणा था। वे भिक्षा लेने नगर में गए। उसी दिन ब्राह्मण करने मात्र से कोई ब्राह्मण नहीं होता, अरण्य में रहने मात्र से विजयघोष ने यज्ञ प्रारम्भ किया था। दूर-दूर से ब्राह्मण बुलाए कोई मुनि नहीं होता, दर्भ-वल्कल आदि धारण करने मात्र से गए थे। उनके लिए विविध भोजन-सामग्री तैयार की गई थी। कोई तापस नहीं होता।" (श्लो० २६) मुनि जयघोष भिक्षा लेने यज्ञ-वाट में पहुंचे। भिक्षा की याचना “समभाव से समण होता है, ब्रह्मचर्य का पालन करने से की। प्रमुख याजक विजयघोष से कहा-'मुने ! मैं तुम्हें भिक्षा ब्राह्मण, ज्ञान से मुनि और तपस्या से तापस होता है" (श्लो०३१) नहीं दूंगा। तुम कहीं अन्यत्र चले जाओ। जो ब्राह्मण वेदों को “जातिवाद अतात्त्विक है। अपने-अपने कार्य से व्यक्ति जानते हैं, जो यज्ञ आदि करते हैं जो शिक्षा, कल्प, व्याकरण, ब्राह्मण आदि होता है। जाति कार्य के आधार पर विभाजित है, निरुक्त, छंद और ज्योतिष-वेद के इन छह अंगों के पारगामी जन्म के आधार पर नहीं। मनुष्य कर्म से ब्राह्मण होता है, कर्म हैं तथा जो अपनी और दूसरों की आत्मा का उद्धार करने में से क्षत्रिय, कर्म से वैश्य और कर्म से शूद्र।” (श्लो० ३१) समर्थ हैं—उन्हीं को यह प्रणीत अन्न दिया जाएगा, तुम जैसे वेद, यज्ञ, धर्म और नक्षत्र का मुख क्या है? अपनी व्यक्तियों को नहीं। (श्लो० ६, ७, ८) तथा दूसरों की आत्मा में सुधार करने में कौन समर्थ है ?मुनि जयघोष ने यह बात सुनी। प्रतिषिद्ध किए जाने पर इन प्रश्नों का समाधान मुनि जयघोष ने विस्तार से दिया है। रुष्ट नहीं हुए। समभाव का आचरण करते हुए स्थिर-चित्त (श्लो० १६ से ३३) उत्तराध्ययन नियुक्ति गाथा, ४६२ : २. वही, गाथा ४६१ : तवसंजमेसु जयणा भावे जन्नो मुणेयव्यो ।। जयघोसा अणगारा विजयघोसस्स जन्नकिच्चंमि। तत्तो समुट्ठियमिणं अज्झयणं जन्नइज्जन्ति।। १. Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003626
Book TitleAgam 30 Mool 03 Uttaradhyayana Sutra Uttarajjhayanani Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2006
Total Pages770
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_uttaradhyayan
File Size25 MB
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