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________________ उत्तरज्झयणाणि ५४२ (५) सागारिक ( शय्यातर) पिंड खाना । (६) औद्देशिक, क्रीत या सामने लाकर दिया जाने वाला भोजन करना । (७) बार-बार प्रत्याख्यान कर खाना । (८) एक महीने के अन्दर एक गच्छ से दूसरे गच्छ में जाना । (६) एक महीने के अन्दर तीन उदक- लेप लगाना । (१०) एक महीने में तीन बार माया का सेवन करना । (११) राज - पिण्ड का भोजन करना । ( १२ ) जान-बूझ कर प्राणातिपात करना । (१३) जान-बूझ कर मृषावाद बोलना । (१४) जान-बूझ कर अदत्तादान लेना । (१५) जान-बूझ कर अन्तर- रहित ( सचित्त) पृथ्वी पर स्थान या निषद्या करना । (१६) जान-बूझ कर सचित्त पृथ्वी पर तथा सचित्त शिला पर, घुण वाले काष्ठ पर, शय्या अथवा निषद्या (१६) एक वर्ष में दस उदक- लेप लगाना । (२०) एक वर्ष में दस बार माया स्थान का सेवन करना । (२१) सचित्त जल से लिप्त हाथों से बार-बार अशन, पान, खाद्य और स्वाद्य को लेना तथा उन्हें खाना । देखिए - समवाओ, समवाय २१; दशाश्रुतस्कन्ध, दशा २ । २८. बाई परीषहों (बावीसाए परीसहे) देखिए -अध्ययन २ । २९. सूत्रकृतांग के तेईस अध्ययनों... में (तेवीस सूयगढे) सूत्रकृतांग के दो विभाग हैं - (१) प्रथम श्रुतस्कन्ध में १६ अध्ययन हैं और (२) दूसरे श्रुतस्कन्ध में ७ अध्ययन हैं। तेईस अध्ययनों के नाम इस प्रकार हैं 9. बृहद्वृत्ति, पत्र ६१६ : तथा रूपम् — एकस्तेनाधिकाः प्रक्रमात् सूत्रकृताध्ययनेभ्यो रूपाधिकात्वतुर्विंशतिरित्पर्यस्तेषु । Jain Education International अध्ययन ३१ : श्लोक १५-१७ टि० २८-३१ (१) समय, (१३) यथातथ्य, (२) वैतालिक, (१४) ग्रन्थ, (३) उपसर्ग-परिक्षा, (१५) यमक, (१६) गाथा, (१७) पुंडरीक, (१८) क्रिया - स्थान, (१६) आहार-परिज्ञा, (२०) अप्रत्याख्यान- परिज्ञा, (४) स्त्री-परिज्ञा, (५) नरक-विभक्ति, (६) महावीर स्तुति, (७) कुशील- परिभाषित, (८) वीर्य, (e) धर्म, २३ । ३०. चौबीस प्रकार के देवों में (रूबाहिएसु सुरेसु) यहां रूप का अर्थ 'एक' है। रूपाधिक अर्थात् पूर्वोक्त संख्या से एक अधिक । पूर्व कथन में सूत्रकृतांग सूत्र के २३ अध्ययन ग्रहण किए गए हैं। अतः यहां २४ की संख्या प्राप्त है ।" वृत्तिकार ने इसकी व्याख्या दो प्रकार से की है। प्रथम व्याख्या के अनुसार २४ प्रकार के देव ये हैं- करना । १० प्रकार के भवनपति देव । ८ प्रकार के व्यन्तर देव । ५ प्रकार के ज्योतिष देव । (१७) जीव सहित, प्राण सहित, बीज सहित, हरित सहित, उत्तिंग सहित लीलन-फूलन, कीचड़ तथा मकड़ी के जाल वाली तथा इसी प्रकार की अन्य पृथ्वी पर बैठना, सोना और स्वाध्याय करना । १ वैमानिक देव । (समस्त वैमानिक देवों को एक ही त्वक् का भोजन, प्रवाल का भोजन, पुष्प का प्रकार में गिना है, भिन्नता की विवक्षा नहीं की है) भोजन, फूल का भोजन करना । दूसरी व्याख्या के अनुसार यहां (१८) जान-बूझ कर मूल का भोजन, कन्द का भोजन, तीर्थङ्करों का ग्रहण किया गया है। हरित का भोजन करना । व्याख्या मान्य रही है(१) ऋषभ, (२) अजित, (३) शम्भव, (४) अभिनन्दन, (५) सुमति, (६) पद्मप्रभु, (७) सुपार्श्व, (८) चन्द्रप्रभ, (१६) शान्ति, देखिए समवाओ, समवाय २४ । ३१. पच्चीस भावनाओं.... में (पणवीसभावणाहिं ) (११) श्रेयांस, (१२) वासुपूज्य, (१३) विमल, (१४) अनन्त, (१५) धर्म, भावना का अर्थ है— 'वह क्रिया जिससे आत्मा को संस्कारित, वासित या भावित किया जाता है'। वे २५ हैं, (१०) समाधि, (११) मार्ग, (१२) समवसरण, देखिए समवाओ, समवाय - २. वही, पत्र ६१६ (२१) अनगार श्रुत, (२२) आर्द्रकुमारीय, (२३) नालंदीय । (६) सुविधि, (१०) शीतल, For Private & Personal Use Only ३. वही, पत्र ६१६ : ऋषभादितीर्थकरेषु । - ऋषभदेव आदि २४ समवायांग में द्वितीय भवणवण जोइवेमाणिया य दस अट्ट पंच एगविहा । इति चउवीसं देवा केई पुण बेंति अरहंता ।। (५७) कुन्यु (१५) अर (१६) मल्लि (२०) मुनिसुव्रत, (२१) नमि (२२) नेमि, (२३) पा (२४) वर्द्धमान । www.jainelibrary.org
SR No.003626
Book TitleAgam 30 Mool 03 Uttaradhyayana Sutra Uttarajjhayanani Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2006
Total Pages770
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_uttaradhyayan
File Size25 MB
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