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उत्तरज्झयणाणि
अध्ययन ३६ : श्लोक १४४-१५२
६१६ एतेषां वर्णतश्चैव गन्धतो रसस्पर्शतः। संस्थानादेशतो वापि विधानानि सहस्रशः।।
१४४. एएसिं वण्णओ चेव
गंधओ रसफासओ। संठाणादेसओ वावि विहाणाइं सहस्ससो।।
वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श और संस्थान की दृष्टि से उनके हजारों भेद होते हैं।
१४५. चउरिंदिया उ जे जीवा
दुविहा ते पकित्तिया। पज्जत्तमपज्जत्ता तेसिं भेए सुणेह मे।।
चतुरिन्द्रियास्तु ये जीवाः द्विविधास्ते प्रकीर्तिताः। पर्याप्ता अपर्याप्ताः तेषां भेदान् शृणुत मे।।
चतुरिन्द्रिय जीव दो प्रकार के होते हैं—पर्याप्त और अपर्याप्त। उनके भेद तुम मुझसे सुनो।
१४६. अंधिया पोत्तिया चेव
मच्छिया मसगा तहा। भमरे कीडपयंगे य ढिंकुणे कुंकुणे तहा।।
अन्धिकाः पोत्तिकाश्चैव मक्षिका मशकास्तथा। भ्रमराः कीटपतंगाश्च ढिकुणा कुंकणास्तथा।।
अन्धिका, पोत्तिका, मक्षिका, मच्छर, भ्रमर, कीट, पतंग, ढिंकुण, कुंकुण,
कुक्कुड़, शृंगिरीटी, नन्दावर्त, बिच्छु, डोल, भुंगरीटक, विरली, अक्षिवेधक,
१४७. कुक्कुडे सिंगिरीडी य
नंदावत्ते य विंछिए। डोले भिंगारी य विरली अच्छिवेहए।।
कुक्कुटाः शृङ्गरीट्यश्च नन्दावर्त्ताश्च वृश्चिकाः। 'डोल' भृङ्गारिणश्च विरल्योऽक्षिवेधकाः ।।
१४८. अच्छिले माहए अच्छिरोडए अक्षिला मागधा अक्षिरोडका
विचित्ते चित्तपत्तए। विचित्राश्चित्रपत्रकाः।
ओहिंजलिया जलकारी य ओहिंजलिया जलकार्यश्च नीया तंतवगाविय।। नीचास्तन्तवका अपि च।।
अक्षिल, मागध, अक्षिरोडक, विचित्र-पत्रक, चित्र-पत्रक, ओहिंजलिया, जलकारी, नीचक, तन्तवक
१४६. इइ चउरिंदिया एए
णेगहा एवमायओ। लोगस्स एग देसम्मि ते सव्वे परिकित्तिया।।
इति चतुरिन्द्रिया एते अनेकधा एवमादयः। लोकस्यैकदेशे ते सर्वे परिकीर्तिताः।।
आदि अनेक प्रकार के चतुरिन्द्रिय जीव हैं।" वे लोक के एक भाग में ही प्राप्त होते हैं, समूचे लोक में नहीं।
प्रवाह की अपेक्षा से वे अनादि-अनन्त और स्थिति की अपेक्षा से सादि-सान्त हैं।
१५०. संतई पप्पणाईया
अपज्जवसिया वि य। ठिइं पडुच्च साईया सपजजवसिया वि य।।
सन्ततिं प्राप्य अनादिकाः अपर्यवसिता अपि च। स्थितिं प्रतीत्य सादिकाः सपर्यवसिता अपि च।।
उनकी आयु-स्थिति जघन्यतः अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्टतः छह मास की है।
षट् चैव च मासास्तु उत्कर्षेण व्याख्याता। चतुरिन्द्रियायुः स्थितिः अन्तर्मुहूर्तं जघन्यका।।
१५१. छच्चेव य मासा उ
उक्कोसेण वियाहिया। चउरिंदियआउठिई
अंतोमुहुत्तं जहन्निया ।। १५२. संखिज्जकालमुक्कोसं
अंतोमुहुत्तं जहन्नयं चउरिंदियकायठिई तं कायं तु अमुंचओ।।
संख्येयकालमुत्कर्ष अन्तर्मुहूर्त जघन्यकम्। चतुरिन्द्रियकायस्थितिः तं कायं तु अमुंचताम् ।।
उनकी काय-स्थिति जघन्यतः अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्टतः संख्यात काल की है।
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