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________________ जीवाजीवविभक्ति १३५. एएसिं वण्णओ चेव गंधओ रसफासओ । संठाणादेसओ वावि विहाणाई सहस्ससो ।। १३६. तेइंदिया उ जे जीवा दुविहा ते पकित्तिया । पज्जत्तमपज्जत्ता सिं भेए सुणेह मे ॥ १३७. कुंथुपिवीलिउड्डंसा उक्कलुद्देहिया तहा। तणहारकट्ठहारा मालुगा पत्तहारगा ।। १३८. कप्पासट्रिमिजा य तिंदुगा तउसमिजगा । सदावरी य गुम्मी य बोद्धव्या इंदकाइया ।। १३९. इंदगोवगमाईया गहा एवमायओ । लोएगदेसे ते सव्वे न सव्वत्थ वियाहिया ।। १४०. संतई पप्पणाईया अपज्जवसिया वि य । ठिइं पडुच्च साईया सपज्जवसिया वि य ।। १४१. एगूणपण्णहोरत्ता उक्कोसेण वियाहिया । तेइंदिय आउठिई अंतोमुहुत्त तहन्निया ।। १४२. संखिज्जकालमुक्कोसं अंतमुत्तं जहन्नयं । तेइंदियकायठिई तं कार्य तु अमुचओ ।। १४३. अनंतकालमुक्कोसं अंतोमुहुत्तं जहन्नयं । तेईदियजीवाणं अंतरेयं वियाहियं । । Jain Education International ६१५ एतेषां वर्णतश्चैव गन्धतो रसस्पर्शतः । संस्थानदेशतो वापि विधनानि सहस्रशः ।। त्रीन्द्रियास्तु ये जीवाः द्विविधास्ते प्रकीर्तिताः । पर्याप्ता अपर्याप्ताः तेषां भेदान् शृणु मे ॥ कुन्दुपिपीलिकोदशाः उक्कलोपदेहिकास्तथा । तृणहारकाष्ठहाराः 'मालुगा' पत्रहारकाः ।। कर्पासास्थिमिंजाश्च तिन्दुकाः प्रपुषमिजकाः। शतावरी च गुल्मी च श्रीव्या इन्द्रकायिकाः ।। इन्द्रगोपकादिकाः अनेकथा एवमादयः । लोकैकदेशे ते सर्वे न सर्वत्र व्याख्याताः ।। सन्ततिं प्राप्य अनादिकाः अपर्यवसिता अपि च । स्थितिं प्रतीत्य सादिकाः सपर्यवसिता अपि च ।। एकोनपंचाशदहोरात्राणि उत्कर्षेण व्याख्याता । स्थितिः अन्तर्मुहूर्तं जघन्यका ।। संख्येयकालमुत्कर्ष अन्तर्मुहूर्त जघन्यक त्रीन्द्रियकायस्थितिः तं कायं तु अमुचताम् ।। अनन्तकालमुत्कर्ष अन्तर्मुह जघन्यकम् । त्रीन्द्रिय जीवानां अन्तरमेतद् व्याख्यातम् ।। अध्ययन ३६ : श्लोक १३५-१४३ वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श और संस्थान की दृष्टि से उनके हजारों भेद होते हैं। त्रीन्द्रिय जीव दो प्रकार के हैं—पर्याप्त और अपर्याप्त । उनके भेद तुम मुझसे सुनो। कुंथु, चींटी, खटमल मकड़ी, दीमक, तृणाहारक, काष्ठाहारक (घुन), मालुक, पत्राहारक, कर्पासास्थि-मंजक तिन्दुक, त्रपुष-मिंजक, शतावरी कानखजूरी, इन्द्रकायिक, 1 इन्द्रगोपक आदि अनेक प्रकार के त्रीन्द्रिय जीव हैं। वे लोक के एक भाग में ही प्राप्त होते हैं, समूचे लोक में नहीं। प्रवाह की अपेक्षा से वे अनादि-अनन्त और स्थति की अपेक्षा से सादि- सान्त हैं । उनकी आयु स्थिति जघन्यतः अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्टतः उनचास दिनों की है। उनकी काय स्थिति जघन्यतः अन्तर्मुहूर्त्त और उत्कृष्टतः संख्यात काल की है। 1 उनका अन्तर जघन्यतः अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्टतः अनन्तकाल का है । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003626
Book TitleAgam 30 Mool 03 Uttaradhyayana Sutra Uttarajjhayanani Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2006
Total Pages770
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_uttaradhyayan
File Size25 MB
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