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जीवाजीवविभक्ति
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अध्ययन ३६ : श्लोक १५३-१६१
१५३. अणंतकालमुक्कोसं
अंतोमुहुत्तं जहन्नयं। विजढंमि सए काए अंतरेयं वियाहियं ।।
अनन्तकालमुत्कर्ष अन्तर्मुहूर्त जघन्यकम्। वित्यक्ते स्वके काये अन्तरमेतद् व्याख्यातम् ।।
उनका अन्तर—चतुरिन्द्रिय के काय को छोड़कर पुनः उसी काय में उत्पन्न होने तक का काल जघन्यतः अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्टतः अनन्त काल का है।
वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श और संस्थानप की दृष्टि से उनके हजारों भेद होते हैं।
१५४. एएसिं वण्णओ चेव
गंधओ रसफासओ। संठाणादेसओ वावि विहाणाई सहस्ससो।।
एतेषां वर्णतश्चैव गन्धतो रसस्पर्शतः। संस्थानादेशतो वापि विधानानि सहस्रशः।।
पंचेन्द्रिय जीव चार प्रकार के हैं-(१) नैरयिक, (२) तिर्यञ्च, (३) मनुष्य और (४) देव।
१५५. पंचिंदिया उ जे जीवा पंचेन्द्रियास्तु ये जीवाः
चउव्विहा ते वियाहिया। चतुर्विधास्ते व्याख्याताः। नेरइयतिरिक्खा य
नैरयिकास्तिर्यञ्चश्च मणुया देवा य आहिया।।। मनुजा देवाश्च आख्याताः।।
१५६. नेरइया सत्तविहा
पुढवीसु सत्तसू भवे। रयणाभसक्कराभा वालुयाभा य आहिया।।
नैरयिकाः सप्तविधाः पृथिवीषु सप्तसु भवेयुः। रत्नाभा शर्कराभा वालुकाभा च आख्याता।।
नैरयिक जीव सात प्रकार के हैं वे सात पृथ्वियों में उत्पन्न होते हैं। वे सात पृथ्वियां ये हैं-(१) रत्नाभा, (२) शर्कराभा, (३) वालुकाभा,
१५७. पंकाभा धूमाभा
तमा तमतमा तहा। इइ नेरइया एए सत्तहा परिकित्तिया ।।
पंकाभा धूमाभा तमा तमस्तमा तथा। इति नैरयिका एते सप्तधा परिकीर्तिताः।।
(४) पंकाभा, (५) धूमाभा, (६) तमा और (७) तमस्तमा। इन सात पृथ्वियों में उत्पन्न होने के कारण ही नैरयिक सात प्रकार के हैं।
वे लोक के एक भाग में हैं। अब मैं उनके चतुर्विध काल विभाग का निरूपण करूंगा।
१५८. लोगस्स एगदेसम्मि
ते सव्वे उ वियाहिया। एत्तो कालविभागं तु वुच्छं तेसिं चउव्विहं ।।
लोकस्यैकदेशे ते सर्वे तु व्याख्याताः। इतः कालविभागं तु वक्ष्यामि तेषां चतुर्विधम् ।।
प्रवाह की अपेक्षा से वे अनादि-अनन्त और स्थिति की अपेक्षा से सादि-सान्त हैं।
१५६. संतइं पप्पणाईया
अपज्जवसिया वि य। ठिइं पडुच्च साईया सपज्जवसिया वि य।।
सन्ततिं प्राप्य अनादिकाः अपर्यवसिता अपि च। स्थितिं प्रतीत्य सादिकाः सपर्यवसिता अपि च।।
सागरोपममेकं तु उत्कर्षेण व्याख्याता। प्रथमायां जघन्येन दशवर्षसहस्त्रिका।।
पहली पृथ्वी में नैरयिकों की आयु-स्थिति जघन्यतः दस हजार वर्ष और उत्कृष्टतः एक सागरोपम की
१६०. सागरोवममेगं तु
उक्कोसेण वियाहिया। पढमाए जहन्नेणं
दसवाससहस्सिया।। - १६१. तिण्णेव सागरा ऊ
उक्कोसेण वियाहिया। दोच्चाए जहन्नेणं एगं तु सागरोवमं ।।
दूसरी पृथ्वी में नैरयिकों की आयु-स्थिति जघन्यतः एक सागरोपम और उत्कृष्टतः तीन सागरोपम की
त्रय एव सागरास्तु उत्कर्षेण व्याख्याता। द्वितीयायां जघन्येन एकं तु सागरोपमम्।।
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