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________________ उरश्रीय १३७ शान्त्याचार्य ने 'सेऽदुही' में आकार को लुप्त मानकर प्रथम व्याख्या 'अदुही' की है।' परन्तु यहां 'दुही' शब्द 'अदुही' की अपेक्षा अधिक अर्थ देता है। ७. (अन्नदत्तहरे ) अन्नदत्तहर शब्द के चार अर्थ किए हैं (१) दूसरों को दी गई वस्तु को बीच में ही छीन लेने वाला । (२) जो दूसरा देना नहीं चाहता, उसे बलात् छीन लेने वाला । (३) गांव, नगर आदि में चोरी करने वाला । (४) ग्रन्थिछेद कर दूसरों का धन चुराने वाला । ८. महाआरंभ (महारंभ ) जिस व्यवसाय में बहुत प्राणियों की घात होती है उसे महा-आरंभ कहा जाता है । महान् आरम्भ अर्थात् अपरिमित हिंसा का व्यापार । ९. बलवान् (परिवूढे ) इसका शाब्दिक अर्थ है— जिसका शरीर मांस और शोणित से उपचित हो गया है। तात्पर्य में यह बलवान् और समर्थ का सूचक है। १०. दूसरों का दमन करने वाला (परंदमे) जो दूसरों को अपनी इच्छानुसार कार्यों में नियोजित करने में समर्थ हो, वह 'परंदम' होता है। जो दूसरों का दमन करने में समर्थ होता है, वह 'परंदम' है। ' विशेष: पांचवें और छठे श्लोक में जैनधर्म का आचारशास्त्रीय दृष्टिकोण प्रतिपादित है । ११. कर-कर शब्द करते हुए (कक्कर) चूर्णिकार ने इसका अर्थ--मधुर और दंतुर मांस किया है। वृत्ति में इसका अर्थ है - जो मांस खाते समय चने की भांति 'करकर' शब्द करता है वैसा मेदुर, दंतुर और अत्यन्त पका हुआ मांस ।" १२. नरक के आयुष्य की आकांशा करता है (आठयं नरए कंखे) प्रस्तुत तीन श्लोकों (५, ६, ७) में कुछेक प्रवृत्तियों का नामोल्लेख कर उनसे होने वाले परिणाम अर्थात् नरकगमन का निर्देश किया है। वे प्रवृत्तियां संक्षेप में इस प्रकार हैं २ Jain Education International अध्ययन ७ (१) हिंसा (२) मृषावाद (३) अदत्तादान (४) विषयासक्ति माने हैं (५) महान् आरम्भ (६) महान् परिग्रह (७) मांस-मदिरा का सेवन (८) शोषण । स्थानांग (४।६२८) में नरकयोग्य कर्मार्जन के चार हेतु : श्लोक ५-८ टि० ७-१४ ३. पंचेन्द्रिय वध १. महान् आरम्भ २. महान् परिग्रह ४. मांस भक्षण । इन चार कारणों का विस्तार इन तीन श्लोकों (५-७) में है। नरकगमन के ये चार हेतु ही नहीं हैं, और भी अनेक हेतु हो सकते हैं। अध्यवसायों की क्लिष्टता और उससे संचालित कोई भी प्रवृत्ति नरक का कारण बन सकती है। वृत्तिकार के अनुसार पांचवें और छठे श्लोक के दो चरणों में आरम्भ-हिंसा का कथन किया गया है तथा छठे के शेष दो चरणों तथा सातवें श्लोक के प्रथम दो चरणों में रसमृद्धि का निर्देश है और अवशिष्ट दो चरणों में आरम्भ और रसगृद्धि से होने वाले परिणाम — दुर्गतिगमन का निर्देश १३. दुःख से एकत्रित हुए (दुस्साहड) चूर्णिकार ने 'दुस्साहडं' के तीन अर्थ किए हैं। १. 'दुट्टं साहडं — दुस्साहडं'–कष्टपूर्वक उपार्जित, दूसरों को राजी कर उपार्जन करना । ६. ७. ८. €. २. दुक्खेण वा साहडं दुस्साहडं शीत, वात आदि अनेक कष्टों को सहते हुए उपचित। स्वयं ३. दुष्ट उपायों से दूसरे की संपत्ति को टान लेना 1 शान्त्याचार्य ने इसका मूल अर्थ इस प्रकार किया है--- दुःख को भोगकर तथा दूसरों को भी दुःखी बना कर उपार्जित करना। इसका वैकल्पिक अर्थ है- - अत्यन्त कष्टपूर्वक संचित । " आचार्य नेमिचन्द्र ने एक श्लोक उद्धृत कर धन के 'दुस्साहड' का समर्थन किया है 'अर्थानामर्जने दुःखगर्जितानां च रक्षणे । नाशे दुःखं व्यये दुःखं, घिगर्थं दुःखभाजनम् ।।' १४. द्यूत आदि के द्वारा गंवाकर (हिव्या) १. बृहद्वृत्ति, पत्र २७३ : 'सेऽदुहि' त्ति अकारप्रश्लेषात् स इत्युरओ दुःखी सुखी सन्, अथवा वध्यमण्डनमिवास्यौदनदानादिनीति तत्त्वतो दुःखितैवारयेति दुःखी । वही, पत्र २७५ । (क) उत्तराध्ययन चूर्ण, पृ० १६० । (ख) बृहद्वृत्ति, पत्र २७४ । ३. वृहद्वृत्ति, पत्र २७५ महान अपरिमितः, आरम्भः अनेकजन्तूपघातकृद् उत्तराध्ययन चूर्ण, पृ० १६१: साहड णाम उपार्जितं, दुट्ठ साहड दुस्साहडं, परेसिं परेसिं उवरोधं काऊणंति भणितं होति । दुक्खेण वा साहडं दुस्साहडं, सीतावातादिकिलेसेहिं उवचितंति, अथवा कताकतं देतव्यमदेतव्वं खेत्थखलावत्थं दुस्साहडं, दुस्सारवितंति भणितं होति । १०. बृहद्वृत्ति, पत्र २७५ । व्यापारः । ४. वही, पत्र २७५ परिवूढे त्ति परिवृढः प्रभुरुपचितमांसशोणिततया तत् क्रिया समर्थ इति यावत् । ११. सुखबोधा, पत्र ११७ । ५. वही, पत्र २७५ : परान् — अन्यान् दमयति-— यत् कृत्याभिमतकृत्येषु १२. वही, पत्र ११७ : 'हित्वा' द्यूताद्यसद्व्ययेन त्यक्त्वा । प्रवर्तयतीति परन्दमः । इसका सामान्य अर्थ है— छोड़कर । परन्तु प्रस्तुत प्रकरण में इसका अर्थ है— द्यूत आदि व्यसनों के द्वारा गंवाकर । कक्करं नाम महुरं दंतुरं मांसं । उत्तराध्ययन चूर्णि, पृ० १६० बृहद्वृत्ति, पत्र २७५ । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003626
Book TitleAgam 30 Mool 03 Uttaradhyayana Sutra Uttarajjhayanani Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2006
Total Pages770
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_uttaradhyayan
File Size25 MB
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