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ब्रह्मचर्य - समाधि - स्थान
५. कुइयं रुइयं गीयं
हसियं थणियकंदियं । बंभचेररओ थीणं सोयगिज्झं विवज्जए ।।
६. हासं किड्ड रई दप्पं सहसावत्तासियाणि य बंभवेररओ थीण नाणुचंते कयाइ वि ।।
७. पणीयं भत्तपाणं तु खिप्यं मयविवहणं । बंभचेररओ भिक्खू निच्चसो परिवज्जए ।।
८. धम्मलद्धं मियं काले जत्तत्थं पणिहाणवं । नाइमत्तं तु भुजेज्जा बंभचेररओ सया ।। ६. विभूसं परिवज्जेज्जा
सरीरपरिमंडणं । बंभवेररओ भिक्खू सिंगारत्थं न धारए ।
१०. सद्दे रूवे य गंधे य रसे फासे तहेव य । पंचविहे कामगुणे निच्चसौ परिवज्जए ।। ११. आलओ थीजणाइण्णो थीकहा य मणोरमा । संथवो चैव नारीर्ण तासि इंदियदरिसणं ।। १२. कुइयं रुइयं गीय
इसियं मुत्तासियाणि च । पणीयं भत्तपाणं च अइमायं पाणभोयणं ।।
१३. गत्तभूसणमिट्ठ च कामभोगा य दुज्जया। नरस्सत्तगवेसिस्स विसं तालउडं जहा ।।
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कूजितं रुदितं गीतं हसितं स्तनितन्दितम्। ब्रह्मचर्यरतः स्त्रीणां श्रोत्र विवर्जयेत् ।।
हासं क्रीडां रतिं दर्पं सहसाऽवत्रासितानि च । ब्रह्मचर्यरतः स्वीणां नानुचिन्तयेत् कदाचिदापि ।।
प्रणीतं भक्तपानं तु क्षिप्रं मदविवर्धनम् । ब्रह्मचर्यरतो भिक्षुः नित्यशः परिवर्जयेत् । धर्म्यलब्धं मितं काले यात्रार्थ प्रणिधानवान्। नातिमा तु भुञ्जीत ब्रह्मचर्यरतः सदा ।।
विभूषां परिवर्जयेत शरीरपरिमण्डनम् । ब्रह्मचर्यरतो भिक्षुः शृङ्गारार्थं न धारयेत् ।।
शब्दान् रूपांश्च गंधांश्च रसान् स्पर्शास्तथैव च । पञ्चविधान् कामगुणान् नित्यशः परिवर्जयेत्॥" आलयः स्त्रीजनाकीर्णः स्त्रीकथा च मनोरमा । संस्तवश्चैव नारीणां तासामिन्द्रियदर्शनम् ॥ कूजितं रुदितं गीतं हसितं मुक्तासितानि च। प्रणीतं भक्तपानं च अतिमात्र पानभोजनम् ।।
गात्रभूषणमिष्टं च कामभोगाश्च दुर्जयाः । नरस्यात्मगयेषिणः
विषं तालपुटं यथा ।।
अध्ययन १६ : श्लोक १-१३
ब्रह्मचर्य में रत रहने वाला भिक्षु स्त्रियों के श्रोत्र - ग्राह्य कूजन, रोदन, गीत, हास्य, गर्जन और क्रन्दन को न सुने-सुनने का यत्न न करे।
ब्रह्मचर्य में रत रहने वाला भिक्षु पूर्व-जीवन में स्त्रियों के साथ अनुभूत हास्य, क्रीड़ा, रति, अभिमान और आकस्मिक प्रास का कभी भी अनुचिंतन न करे ।"
ब्रह्मचर्य में रत रहने वाला भिक्षु शीघ्र ही कामवासना को बढ़ाने वाले प्रणीत भक्त-पान का सदा वर्जन करे ।
ब्रह्मचर्य - रत और स्वस्थ चित्त वाला भिक्षु जीवन निर्वाह के लिए उचित समय में निर्दोष, भिक्षा द्वारा प्राप्त," परिमित भोजन करे, किन्तु मात्रा से अधिक न खाए ।
ब्रह्मचर्य में रत रहने वाला भिक्षु विभूषा का वर्जन करे और शरीर की शोभा बढ़ाने वाले केश, दाढ़ी आदि को शृंगार के लिए धारण न करे।
शब्द, रूप, गन्ध, रस और स्पर्श-इन पांचों प्रकार के काम-गुणों का सदा वर्जन करे।
(१) स्त्रियों से आकीर्ण आलय, (२) मनोरम स्त्री - कथा,
(३) स्त्रियों का परिचय, (४) उनके इन्द्रियों को देखना,
(५) उनके कूजन, रोदन, गीत और हास्य युक्त शब्दों को सुनना,
(६) भुक्त भोग और सहावस्थान को याद करना, (७) प्रणीत पान - भोजन,
(८) मात्रा से अधिक पान- भोजन,
(E) शरीर को सजाने की इच्छा और
(१०) दुर्जय काम भोग-ये दस आत्म- गवेषी मनुष्य के लिए तालपुट विष के समान हैं।
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