SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 311
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ उत्तरज्झयणाणि बंभचेरे संका वा, कंखा वा, वितिमिच्छा वा समुप्यज्जिज्जा, भेयं वा लभेज्जा, उम्मायं वा पाउणिज्जा दीहकालिय वा रोगायक हवेज्जा केवलिपण्णत्ताओ वा धम्माओ भंसेज्जा । तम्हा खलु नो निम्गंधे विभूसाणुवाई सिया १२.नो सद्दरूवरसगंधफासाणुवाई हवह से निग्गंथे। तं कहमिति चे ? आयरियाह निग्गंथस्स खलु सदरूवरसगंधफासाणुवाइस्स बं भयारिस्स बंभचेरे संका वा, कंखा वा वितिगिच्छा वा समुपज्जज्जा, भेयं वा लभेज्जा, उम्मायं वा पाउणिज्जा, दीहकालियं वा रोगायक हवेज्जा, केवलिपण्णत्ताओ वा धम्माओ भंसेज्जा । तम्हा खलु नो निग्गथे सद्दरूवरसगंधफासाणुवाई हविज्जा | दसमे बंभचेरसमाहिठाणे हवइ । भवति इत्य सिलोगा, तं जहा१. जं विवित्तमणाइण्णं रहियं थीजणेण य । बंभचेरस्स रक्खट्ठा आलयं तु निसेवए ।। २. मणपल्हायजणणिं कामरागविवणि । बंभचेररओ भिक्खू चीकहं तु विवज्जए ।। ३. समं च संथवं थीहिं संकहं च अभिक्खणं । बंभचेररओ भिक्खू निच्चसो परिवज्जए ।। ४. अंगपच्चंगसं ठाणं चारुल्लवियपेहियं । बंभचेररओ थीणं चक्खुगिज्झं विवज्जए ।। Jain Education International २७० विचिकित्सा वा समुत्पद्येत, भेदं वा लभेत, उन्मादं वा प्राप्नुयात्, दीर्घकालिको वा रोगातको भवेत्, केवलिप्रज्ञप्ताद् वा धर्माद् भ्रश्येत् । तस्मात् खलु नो निर्ग्रन्थो विभूषानुपाली स्यात् । नो शब्दरूपरसगन्धस्पर्शानुपाती भवति, स निर्ग्रन्थः । तत्कथमिति चेत् ? आचार्य आह ङ- निर्ग्रन्थस्य खलु शब्दरूपरसगन्धस्पर्शानुपातिनो - चारिणो ब्रह्मचर्ये शंका वा कांक्षा वा विचिकित्सा वा समुत्पद्येत, भेदं वा लभेत, उन्मादं वा प्राप्नुयात्, दीर्घकालिको वा रोगातको भवेत्, केवलिप्रनप्ता वा धर्मा प्रश्येत् । तस्मात् खलु नो निर्ग्रन्थः शब्दरूपरसगन्धस्पर्शानुपाती भवेत् । दशमं ब्रह्मचर्यसमाधिस्थानं भवति । भवन्ति अत्र श्लोकाः, तद् यथायो विविक्तोनाकीर्णः रहितं स्त्रीजनेन च । ब्रह्मचर्यस्य रक्षार्थम् आलयं तु निषेवते ।। मनःप्रहलादजननी कामरागविवर्धनीम् । ब्रह्मचर्यरतो मधुः स्वीकथा तु विवर्जयेत् ॥ समं च संस्तवं स्त्रीभिः संरुधां वाभीक्ष्णम्। वरतो भिक्षुः नित्यशः परिवर्जयेत् ।। अध्ययन १६ : सूत्र १२ श्लोक १-४ होती है अथवा ब्रह्मचर्य का विनाश होता है अथवा उन्माद पैदा होता है अथवा दीर्घकालिक रोग और आतंक होता है अथवा वह केवली कथित धर्म से भ्रष्ट हो जाता है. इसलिए विभूषा न करे । अंगप्रत्यंगसंस्थानं चारुल्लपितप्रेक्षितम्। ब्रह्मचर्यरतः स्त्रीणां चक्षुर्ग्राह्यं विवर्जयेत् ।। जो शब्द, रूप, रस, गन्ध और स्पर्श में आसक्त नहीं होता, वह निर्ग्रन्थ है । यह क्यों ? ऐसा पूछने पर आचार्य कहते हैं-शब्द, रूप, रस, गन्ध और स्पर्श में आसक्त होने वाले ब्रह्मचारी को ब्रह्मचर्य के विषय में शंका, कांक्षा या विचिकित्सा उत्पन्न होती है अथवा ब्रह्मचर्य का विनाश होता है अथवा उन्माद पैदा होता है अथवा दीर्घकालिक रोग और आतंक होता है अथवा वह केवली कथित धर्म से भ्रष्ट हो जाता है, इसलिए शब्द, रूप, रस, गन्ध और स्पर्श में आसक्त न बने। ब्रह्मचर्य की समाधि का यह दसवां स्थान है। यहां श्लोक है, जैसे- ब्रह्मचर्य की रक्षा के लिए मुनि वैसे आलय में रहे जो एकांत, अनाकीर्ण और स्त्रियों से रहित हो । ब्रह्मचर्य में रत रहने वाला भिक्षु मन को आहूलाद देने वाली तथा काम-राग बढ़ाने वाली स्त्री-कथा का वर्जन करे । ब्रह्मचर्य में रत रहने वाला भिक्षु स्त्रियों के साथ परिचय और बार-बार वार्तालाप का सदा वर्जन करे । ब्रह्मचर्य में रत रहने वाला भिक्षु स्त्रियों के चक्षु-ग्राह्य अंग-प्रत्यंग, आकार, बोलने की मनहर - मुद्रा और चितवन को न देखे -देखने का यत्न न करे। For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003626
Book TitleAgam 30 Mool 03 Uttaradhyayana Sutra Uttarajjhayanani Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2006
Total Pages770
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_uttaradhyayan
File Size25 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy