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________________ ब्रह्मचर्य-समाधि-स्थान २६९ अध्ययन १६ : सूत्र ६-११ समुप्पज्जिज्जा, भेयं वा लभेज्जा, वा लभेत, उन्माद वा प्राप्नुयात, का विनाश होता है अथवा उन्माद पैदा होता है अथवा उम्मायं वा पाउणिज्जा, दीह- दीर्घकालिको वा रोगातड्को भवेत्, दीर्घकालिक रोग और आतंक होता है अथवा वह कालियं वा रोगायंकं हवेज्जा, केवलिप्रज्ञप्ताद् वा धर्माद् भ्रश्येत्। केवली-कथित धर्म से भ्रष्ट हो जाता है, इसलिए केवलिपण्णत्ताओ वा धम्माओ तस्मात् खलु नो निर्ग्रन्थः स्त्रीणां गृहवास में की हुई रति और क्रीड़ा का अनुस्मरण न भंसेज्जा। तम्हा खलु नो निग्गथे पूर्वरत पूर्वक्रीडितमनुस्मरेत्। करे। पुव्वरयं पुव्वकीलियं अणुस रेज्जा । ६. नो पणीयं आहारं आहारित्ता नो प्रणीतमाहारमाहर्ता भवति, स जो प्रणीत आहार नहीं करता, वह निर्ग्रन्थ है। हवइ, से निग्गंथे। निर्ग्रन्थः। यह क्यों? तं कहमिति चे? तत्कमिति चेत् ? ऐसा पूछने पर आचार्य कहते हैं-प्रणीत पान-भोजन आयरियाह-निग्गंथस्स खलु आचार्य आह-निर्ग्रन्थस्य खलु करने वाले ब्रह्मचारी निम्रन्थ को ब्रह्मचर्य के विषय में पणीयं पाणभोयणं आहारेमाणस्स प्रणीतमाहारमाहरतो ब्रह्मचारिणो शंका, कांक्षा या विचिकित्सा उत्पन्न होती है अथवा बंभयारिस्स बंभचेरे संका वा, ब्रह्मचर्ये शंका वा कांक्षा वा ब्रह्मचर्य का विनाश होता है अथवा उन्माद पैदा होता कंखा वा, वितिगिच्छा वा समुप्प- विचिकित्सा वा समुत्पद्येत, भेदं है अथवा दीर्घकालिक रोग और आतंक होता है ज्जिज्जा, भेयं वा लभेज्जा, वा लभेत, उन्माद वा प्राप्नुयात्, अथवा वह केवली-कथित धर्म से भ्रष्ट हो जाता है, उम्मायं वा पाउणिज्जा, दीहका- दीर्घकालिको वा रोगातंको भवेत्, इसलिए प्रणीत आहार न करे। लियं वा रोगायंकं हवेज्जा, केवलिप्रज्ञप्ताद् वा धर्माद् अश्येत् । केवलिपण्णत्ताओ वा धम्माओ तरमात् खलु नो निर्ग्रन्थः प्रणीतभंसेज्जा। तम्हा खलु नो निग्गंथे माहारमाहरेत् । पणीयं आहारं आहारेज्जा। १०.नो अइमायाए पाणभोयणं नो अतिमात्रया पानभोजनमाहर्ता जो मात्रा से अधिक नहीं पीता और नहीं खाता, वह आहारेत्ता हवइ, से निग्गंथे। भवति, स निर्ग्रन्थः। निर्ग्रन्थ है। तं कहमिति चे? तत्कथमिति चेत् ? यह क्यों? आयरियाह-निग्गंथस्स खल आचार्य आह-निर्ग्रन्थस्य खल्च- ऐसा पूछने पर आचार्य कहते हैं--मात्रा से अधिक अइमायाए पाणभोयणं आहारे- तिमात्रया पानभोजनमाहरतो ब्रह्म- पीने और खाने वाले ब्रह्मचारी निर्ग्रन्थ को ब्रह्मचर्य माणस्स बंभयारिस्स बंभचेरे चारिणो ब्रह्मचर्ये शंका वा कांक्षा के विषय में शंका, कांक्षा या विचिकित्सा उत्पन्न होती संका वा, कंखा वा, वितिगिच्छा वा विचिकित्सा वा समुत्पद्येत, भेदं है अथवा ब्रह्मचर्य का विनाश होता है अथवा उन्माद वा समुप्पज्जिज्जा, भेयं वा वा लभेत, उन्माद वा प्राप्नुयात् पैदा होता है अथवा दीर्घकालिक रोग और आतंक लमेज्जा, उम्मायं वा पाउणिज्जा दीर्घकालिको वा रोगातड्को भवेत्. होता है अथवा वह केवली-कथित धर्म से भ्रष्ट हो दीहकालियं वा रोगायंक केवलिप्रज्ञप्ताद् वा धर्माद् भश्येत्। जाता है, इसलिए मात्रा से अधिक न पीए और न हवेज्जा, केवलिपण्णत्ताओ तस्मात् खलु नो निन्थोऽतिमात्रया खाए। वा धम्माओ भंसेज्जा। तम्हा पानभोजनं भुंजीत। खलु नो निग्गंथे अइमायाए पाणभोयणं भुंजिज्जा। ११.नो विभसाणवाई हवड. से नो विभूषानुपाति भवति, स जो विभूषा नहीं करता-शरीर को नहीं सजाता वह निग्गंथे। निर्ग्रन्थः। निर्ग्रन्थ है। तं कहमिति चे? तत्कथमिति चेत् ? यह क्यों? आयरियाह-विभूसावत्तिए आचार्य आह-विभूषावर्तिको ऐसा पूछने पर आचार्य कहते हैं जिसका स्वभाव विभूसियसरीरे इत्थिजणस्स विभूषितशरीरः स्त्रीजनस्याभिल- विभूषा करने का होता है, जो शरीर को विभूषित अभिलसणिज्जे हवइ। तओ षणाया भवात। ततस्तस्य स्त्रा- किए रहता है, षणीयो भवति। ततस्तस्य स्त्री- किए रहता है, उसे स्त्रियां चाहने लगती हैं। पश्चात् णं तस्स इत्थिजणेणं अभिल- जननाभिलष्यमाणस्य ब्रह्मचारिणी स्त्रियों के द्वारा चाहे जनेनाभिलष्यमाणस्य ब्रह्मचारिणो स्त्रियों के द्वारा चाहे जाने वाले ब्रह्मचारी को ब्रह्मचर्य सिज्जमाणस्स बंभयारिस्स ब्रह्मचर्य शका वा कांक्षा वा के विषय में शंका, कांक्षा या विचिकित्सा उत्पन्न Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003626
Book TitleAgam 30 Mool 03 Uttaradhyayana Sutra Uttarajjhayanani Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2006
Total Pages770
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_uttaradhyayan
File Size25 MB
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