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________________ उत्तरज्झयणाणि २६८ अध्ययन १६ : सूत्र ७, ८ पाउणिज्जा, दीहकालियं वा भवेत्, केवलीप्रज्ञप्ताद् वा केवली-कथित धर्म से भ्रष्ट हो जाता है, इसलिए रोगायंकं हवेज्जा, केवलिपण्ण- धर्माद् भ्रश्येत्। तस्मात् खलु स्त्रियों की मनोहर और मनोरम इन्द्रियों को दृष्टि त्ताओ वा धम्माओ भंसेज्जा। निर्ग्रन्थः नो स्त्रीणामिन्द्रियाणि गड़ा कर न देखे और उनके विषय में चिन्तन न तम्हा खलु निग्गंथे नो इत्थीणं मनोहराणि मनोरमाण्यालोकयेन्नि- करे। इंदियाइं मणोहराई मणोरमाई ायेत् । आलोएज्जा, निज्झाएजजा। ७. नो इत्थीणं कुड्डंतरंसि वा, नो स्त्रीणां कुड्यान्तरे वा, दूष्यान्तरे जो मिट्टी की दीवार के अन्तर से, परदे के अन्तर से, दूसंतरंसि वा, भित्तंतरंसि वा, वा, भित्त्यन्तरे वा, कूजितशब्दं वा, पक्की दीवार के अन्तर से स्त्रियों के कूजन, रोदन, कुइयसदं वा, रुइयसदं वा, रुदितशब्दं वा, गीतशब्द वा, गीत, हास्य, गर्जन, आक्रन्दन या विलाप के शब्दों को गीयसई वा, हसियसदं वा, हसितशब्द वा, स्तनितशब्दं वा, नहीं सुनता, वह निर्ग्रन्थ है। थणियसदं वा, कंदियसई वा, क्रन्दितशब्दं वा, विलपितशब्दं वा, यह क्यों? विलवियस वा, सणेत्ता श्रोता भवति, स निर्यन्थः। ऐसा पूछने पर आचार्य कहते हैं-मिट्टी की दीवार के हवइ, से निग्गंथे। तत्कथमिति चेत् ? अन्तर से, परदे के अन्तर से, पक्की दीवार के तं कहमिति चे? आचार्य आह-निर्ग्रन्थस्य खलु अन्तर से स्त्रियों के कूजन, रोदन, गीत, हास्य, आयरियाह-निग्गंथस्स खलु स्त्रीणां कुड्यान्तरे वा, दूष्यान्तरे गर्जन, आक्रन्दन या विलाप के शब्दों को सुनने वाले, इत्थीणं 'कुड्डंतरंसि वा, वा, भित्त्यन्तरे वा, कूजितशब्दं वा, ब्रह्मचारी निर्ग्रन्थ को ब्रह्मचर्य के विषय में शंका, कांक्षा दूसंतरंसि वा, भित्तंतरंसि वा, रुदितशब्दं वा, गीतशब्दं वा, या विचिकित्सा उत्पन्न होती है अथवा ब्रह्मचर्य का कुइयसई वा, रुइयसदं वा, हसितशब्दं वा, स्तनितशब्द वा, विनाश होता है अथवा उन्माद पैदा होता है अथवा गीयसदं वा, हसियसई वा, क्रन्दितशब्द वा, विलपितशब्द वा, दीर्घकालिक रोग और आतंक होता है अथवा वह थणियसई वा, कंदियसई वा, शृण्वतो ब्रह्मचारिणो ब्रह्मचर्ये शंका केवली-कथित धर्म से भ्रष्ट हो जाता है, इसलिए मिट्टी विलवियसई वा, सुणेमाणस्स वा कांक्षा वा विचिकित्सा वा, की दीवार के अन्तर से, परदे के अन्तर से, पक्की बंभयारिस्स बंभचेरे संका समुत्पद्येत, भेदं वा लभेत, उन्माद दीवार के अन्तर से स्त्रियों के कूजन, रोदन, गीत, वा, कंखा वा, वितिगिच्छा वा वा प्राप्नुयात्, दीर्घ-कालिको वा हास्य, गर्जन, आक्रन्दन या विलाप के शब्दों को न समुप्पज्जिज्जा, भेयं वा लभेज्जा, रोगातको भवेत, केवलि- प्रज्ञप्ताद् सुने। उम्मायं वा पाउणिज्जा, दीह- वा धर्माद् भ्रश्यते। तस्मात् खलु कालियं वा रोगायंकं हवेज्जा, निम्रन्थः नो स्त्रीणां कुड्यान्तरे केवलिपण्णत्ताओ वा धम्माओ वा, दूष्यान्तरे वा, भित्त्यन्तरे वा भंसेज्जा। तम्हा खलु निग्गंथे कूजितशब्दं वा, रुदितशब्दं वा, नो इत्थीणं कुड्डंतरंसि वा, गीतशब्दं वा हसितशब्द वा, दूसंतरंसि वा, भित्तंतरंसि वा, स्तनितशब्द वा, क्रन्दितशब्दं वा. कुइयसदं वा, रुइयसरं वा, विलपितशब्द वा शृण्वन् विहरेत् । गीयसई वा, हसियसई वा, थणियसई वा, कंदियसई वा, विलवियसदं वा सुणेमाणे विहरेज्जा।' ८. नो निग्गंथे पुवरयं पुबकीलियं नो निर्ग्रन्थः पूर्वरतं पूर्वक्रीडितमनु- जो गृहवास में की हुई रति और क्रीड़ा का अनुस्मरण अणुसरित्ता हवइ, से निग्गंथे। स्मर्ता भवेत, स निर्ग्रन्थः। नहीं करता, वह निर्ग्रन्थ है। तं कहमिति चे? तत्कथमिति चेत् ? यह क्यों? आयरियाह-निग्गंथस्स खलु आचार्य आह-निर्ग्रन्थस्य खलु ऐसा पृछने पर आचार्य कहते हैं-गृहवास में की पुवरयं पुवकीलियं अणुसरमा- पूर्वरतं पूर्वक्रीडितमनुस्मरतो ब्रह्म- हुई रति और क्रीड़ा का अनुस्मरण करने वाले णस्स बंभयारिस्स बंभचेरे संका चारिणो ब्रह्मचर्ये शंका वा कांक्षा ब्रह्मचारी निर्ग्रन्थ को ब्रह्मचर्य के विषय में शंका, कांक्षा वा, कंखा वा, वितिगिच्छा वा वा विचिकित्सा वा समुत्पद्येत, भेदं या विचिकित्सा उत्पन्न होती है अथवा ब्रह्मचर्य Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003626
Book TitleAgam 30 Mool 03 Uttaradhyayana Sutra Uttarajjhayanani Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2006
Total Pages770
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_uttaradhyayan
File Size25 MB
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