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________________ ब्रह्मचर्य-समाधि स्थान रोगायकं हवेज्जा, केवलिपण्णताओ वा धम्माओ भंसेज्जा । तम्हा नो इत्थिपसुपंडगसंसत्ताइं सयणासणाई सेवित्ता हवइ, से निग्गंथे । ४. नो इत्थीर्ण कह कहित्ता हवड़, से निग्गंथे । । तं कहमिति चे ? आयरियाह—निग्गंथस्स खलु इत्थीणं कहं कहेमाणस्स बंभयारिस्स बंभचेरे संका वा, कंखा वा, वितिगिच्छा वा समुप्पज्जि - ज्जा, भेयं वा लभेज्जा, उम्मायं वा पाउणिज्जा, दीहकालियं वा रोगायक हवेज्जा, केवलिपण्णताओ वा धम्माओ भंसेज्जा । तम्हा नो इत्थीणं कह कहेज्जा । ५. नो इत्थीहिं सद्धिं सन्निसेज्जागए विहरित्ता हव से निग्गंथे । तं कहमिति चे ? आयरियाह— निग्गंथस्स खलु इत्थीहिं सद्धिं सन्निसेज्जागयस्स बंभयारिस्स बंभचेरे संका वा, कंखा वा, वितिगिच्छा वा, समुप्पज्जिज्जा, भेयं वा लभेज्जा, उम्मार्थ वा पाउणिज्जा, दीहकालियं वा रोगायकं हवेज्जा, केवलिपण्णत्ताओ वा धम्माओ सेज्जा । तम्हा खलु नो निग्गंथे इत्वीहिं सद्धिं सन्निसेज्जागए विहरेज्जा । ६. नो इत्थीणं इंदियाई मणोहराई, मणोरमाई आलोइत्ता निज्झाइत्ता हवइ, से निग्गंथे। तं कहमिति चे ? आयरिवाह— निग्गंधस्स खलु इत्थीण इंदियाई मणोहराई मणो रमाई आलीएमाणस्स निज्झायमाणस्स बंभयारिस्स बंगचेरे संका वा, कंखा वा, वितिगच्छ वा समुप्यज्जिज्जा, भेयं या सभेज्जा, उम्मायं वा Jain Education International २६७ । दीर्घकालिको वा रोगातको भवेत, केवलिप्रज्ञप्ताद् धर्माद् भ्रश्येत् तस्मान्नो स्त्रीपशुपण्डकसंसक्तानि शयनासनानि सेविता भवति, स निर्ग्रन्थः । नो स्त्रीणां कथां कथयिता भवति, स निर्ग्रन्थः । तत्कथमिति चेत् ? आचार्य आह— निर्ग्रन्थस्य खलु स्त्रीणां कथां कथयतो ब्रह्मचारिणो ब्रह्मचर्ये शंकावाकांक्षा विचिकित्सा वा समुत्पद्येत भेदं वा लभेत, उन्माद वा प्राप्नुयात् दीर्घकालिको वा रोगातको भवेत्, केवलिप्रज्ञप्ताद् वा धर्माद् भ्रश्येत् । तस्मान्नो स्वीणां कथां कथयेत् । नो स्त्रीभिः सार्धं सन्निषद्यागतो विहर्ता भवति, स निर्ग्रन्थः । तत्कथमिति चेत ? आचार्य आह-निर्ग्रन्थस्य खलु स्त्रीभिः सार्धं सन्निषद्यागतस्य ब्रह्मचारिणो ब्रह्मचर्ये शंका वा कांक्षा वा विचिकित्सा वा समुत्पद्येत्, भेदं वा लभेत, उन्मादं वा प्राप्नुयात्, दीर्घकालिको वा रोगातको भवेत्, केवली प्रज्ञप्ताद् वा धर्माद् भ्रश्येत् । तस्मात् खलु नो निर्ग्रन्थः स्त्रीभिः सार्धं सन्निवागत विहरेत्। नो स्त्रीणामिन्द्रियाणि मनोहराणि मनोरमाण्यालोकयिता निर्ध्याता भवति, स निर्ग्रन्थः । तत्कथमिति चेत् ? आचार्य आह-निर्ग्रन्थस्य खलु स्त्रीणामिन्द्रियाणि मनोहराणि मनोरमाण्यवलोकमानस्य निर्व्यायतो ब्रह्मचारिणो ब्रह्मचर्ये शंका वा कांक्षा वा विचिकित्सा वा समुप्तद्येत, भेदं वा लभेत, उन्मादं वा प्राप्नुयात्, दीर्घकालिको वा रोगातको अध्ययन १६ : सूत्र ४-६ है, इसलिए जो स्त्री, पशु और नपुंसक से आकीर्ण शयन और आसन का सेवन नहीं करता, वह निर्ग्रन्थ है । जो केवल स्त्रियों के बीच में कथा नहीं करता वह निर्ग्रन्थ है ।" यह क्यों ? ऐसा पूछने पर आचार्य कहते हैं केवल स्त्रियों के बीच कथा करने वाले ब्रह्मचारी निर्ग्रन्थ को ब्रह्मचर्य के विषय में शंका, कांक्षा या विचिकित्सा उत्पन्न होती है अथवा ब्रह्मचर्य का विनाश होता है अथवा उन्माद पैदा होता है अथवा दीर्घकालिक रोग और आतंक होता है अथवा वह केवली कथित धर्म से भ्रष्ट हो जाता है, इसलिए केवल स्त्रियों के बीच में कथा न करे । जो स्त्रियों के साथ पीठ आदि एक आसन पर नहीं बैठता, वह निर्ग्रन्थ है । यह क्यों ? ऐसा पूछने पर आचार्य कहते हैं-स्त्रियों के साथ, एक आसन पर बैठने वाले ब्रह्मचारी निर्ग्रन्थ को ब्रह्मचर्य के विषय में शंका, कांक्षा या विचिकित्सा उत्पन्न होती है अथवा ब्रह्मचर्य का विनाश होता है अथवा उन्माद पैदा होता है अथवा दीर्घकालिक रोग और आतंक होता है अथवा वह केवली कथित धर्म से भ्रष्ट हो जाता है, इसलिए स्त्रियों के साथ एक आसन पर न बैठे। जो स्त्रियों की मनोहर और मनोरम इन्द्रियों को दृष्टि गड़ा कर नहीं देखता, उनके विषय में चिन्तन नहीं करता, वह निर्ग्रन्थ है । यह क्यों ? ऐसा पूछने पर आचार्य कहते हैं स्त्रियों की मनोहर और मनोरम इन्द्रियों को दृष्टि गढ़ा कर देखने वाले और उनके विषय में चिन्तन करने वाले ब्रह्मचारी निर्ग्रन्थ को ब्रह्मचर्य के विषय में शंका, कांक्षा या विचिकित्सा उत्पन्न होती है अथवा ब्रह्मचर्य का विनाश होता है अथवा उन्माद पैदा होता है अथवा दीर्घकालिक रोग और आतंक होता है अथवा वह For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003626
Book TitleAgam 30 Mool 03 Uttaradhyayana Sutra Uttarajjhayanani Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2006
Total Pages770
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_uttaradhyayan
File Size25 MB
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