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________________ ब्रह्मचर्य-समाधि-स्थान २७५ अध्ययन १६ :श्लोक ६-१७ टि० ६-१४ ९. प्रणीत (पणीय) ताली बजाने जितने अल्प समय में व्यक्ति को मार डालता है। जिससे घृत, तेल आदि की बूंदें टपकती हों अथवा जो यह सद्योधाती विष है। तु-वृद्धिकारक हो, उसे 'प्रणीत' आहार कहा जाता है।' देखें-दशवैकालिक ८५६ । मिलाइए—दशवैकालिक, ८५६। १३. (घिइम) १०. (श्लोक ६) धृत्ति का सामान्य अर्थ है-धैर्य। वृत्तिकार ने इसका अर्थ . प्रस्तुत श्लोक में शृंगार रस की कुछेक बातें कही गई हैं। चित्त का स्वास्थ्य किया है। जिसका चित्त स्वस्थ होता है, वही वे कामशास्त्र की उपजीवी हैं। प्रयुक्त कछेक शब्दों के अर्थ इस धृतिमान् होता है। प्रकार हैं १४. धुव, नित्य, शाश्वत (धुवे निअए सासए) * रति-दयिता के सहवास से उत्पन्न प्रीति। इस श्लोक में प्रयुक्त इन तीन शब्दों का अर्थ-बोध इस ★ दर्प-मनस्विनी नायिका के मान को खंडित करने प्रकार हैके लिए उत्पन्न गर्व। १..घुवजो प्रमाणों से प्रतिष्ठित और पर-प्रवादियों सहसा अवत्रासित-पराङ्मुख दयिता को प्रसन्न से अखंडित। करने के लिए आकस्मिक त्रास का उत्पन्न करना, २. नित्य-जो अप्रच्युत, अनुत्पन्न और स्थिर जैसे-आंखमिचौनी करना, मर्मस्थानों का घट्टन स्वभाववाला है, जो त्रिकालवर्ती होता है, वह नित्य करना आदि। है। यह द्रव्यार्थिक दृष्टिकोण है। ११. भिक्षा द्वारा प्राप्त (धम्मलद्ध) ३. शाश्वत-जो निरंतर बना रहता है वह शश्वद् है। वृत्तिकार ने इसके संस्कृत रूप दो किए हैं-धर्म्यलब्ध अथवा जो शश्वद् अन्यान्य रूप में उत्पन्न होता और धर्मलब्ध। धर्म्यलब्ध का अर्थ है—एषणा से प्राप्त और रहता है। यह पर्यायार्थिक दृष्टिकोण है।' धर्मलब्ध का अर्थ है-अध्यात्म के उपदेश से प्राप्त, न कि वृत्तिकार का कथन है कि इन तीनों शब्दों को एकार्थक भी टोटका, कुण्टल आदि से प्राप्त। माना जा सकता है। यह इसलिए कि नाना देशों के शिष्यों पर १२. तालपुट (तालउड) अनुग्रह करने के लिए इन एकार्थवाचक भिन्न-भिन्न शब्दों का यह तीव्रतम विष है। यह ओष्टपुट के भीतर जाते ही, प्रयोग किया गया है। १. (क) उत्तराध्ययन चूर्णि, पृ० २४२-२४३ : प्रणीतं-गलत्स्नेहं तेलघृतादिभिः। (ख) बृहवृत्ति, पत्र ४२६ : 'प्रणीत' गलद्विन्दु, उपलक्षणत्वादन्यमप्यत्यन्त- धातूद्रककारिणम् २. बृहद्वृत्ति, पत्र ४२८ । ३. वही, पत्र ४२६ : तालपुटं सद्योघाति यत्रौष्टपुरान्तर्वतिनि तालमात्रकालविलम्बतो मृत्युरूपजायते।। ४. वही, पत्र ४३० : धृतिमान-धृतिः-चित्तस्वास्थ्यं तद्वान्। ५. वही, पत्र ४३०। ६. वही, पत्र ४३० : एकार्थिकानि वा नानादेशजविनेयनुग्रहार्थमुक्तानि । Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003626
Book TitleAgam 30 Mool 03 Uttaradhyayana Sutra Uttarajjhayanani Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2006
Total Pages770
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_uttaradhyayan
File Size25 MB
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