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________________ अट्ठम अज्झयणं : आठवां अध्ययन काविलीयं : कापिलीय मूल संस्कृत छाया हिन्दी अनुवाद १. अधुवे असासयंमि, अधुवेऽशाश्वते अध्रुव, अशाश्वत' और दुःख-बहुल संसार में ऐसा - संसारंमि दुक्खपउराए। संसारे दुःखप्रचुरके। कौन-सा कर्म-अनुष्ठान है, जिससे मैं दुर्गति में न किं नाम होज्ज तं कम्मयं, किं नाम भवेत् तद् कर्मकं जाऊं? जेणाहं दोग्गई न गच्छेज्जा।। येनाहं दुर्गतिं न गच्छेयम्।। २. विजहित्तु पुवसंजोगं, विहाय पूर्वसंयोगं पूर्व संबन्धों का त्याग कर, किसी के साथ स्नेह न न सिणेहं कहिंचि कुव्वेज्जा। न स्नेहं क्वचित् कुर्वीत् । करे। स्नेह करने वालों के साथ भी स्नेह न करने असिणेह सिणेहकरेहिं, अस्नेहः स्नेहकरेषु वाला भिक्षु दोषों और प्रदोषों से मुक्त हो जाता है। दोसपओसेहिं मुच्चए भिक्खू।। दोषप्रदोषैः मुच्यते भिक्षुः ।। ३. तो नाणदंसणसमग्गो, ततो ज्ञानदर्शनसमग्रः केवल ज्ञान और दर्शन से परिपूर्ण तथा विगतमोह हियनिस्सेसाए सव्वजीवाणं। हितनिःश्रेयसाय सर्वजीवानाम्।। मुनिवर ने सब जीवों के हित और कल्याण के लिए तेसिं विमोक्खणट्ठाए, तेषां विमोक्षणार्थ तथा उन पांच सौ चोरों की मुक्ति के लिए कहा। भासई मुनिवरो विगयमोहो।। भाषते मुनिवरो विगतमोहः ।। ४. सव्वं गंथं कलहं च, सर्वं ग्रन्थं कलहं च भिक्षु कर्मबन्ध की हेतुभूत सभी ग्रन्थियों और विप्पजहे तहाविहं भिक्खू। विप्रजह्यात् तथाविधं भिक्षुः। कलह का त्याग करे। कामभोगों के सब प्रकारों में सव्वेसु कामजाएसु, सर्वेषु कामजातेषु दोष देखता हुआ वीतराग तुल्य मुनि" उसमें लिप्त न पासमाणो न लिप्पई ताई।। पश्यन् न लिप्यते तादृक् ।। बने। ५. भोगामिसदोसविसण्णे, भोगामिषदोषविषण्णः आत्मा को दूषित करने वाले भोगामिष-(आसक्ति जनक हियनिस्सेयसबुद्धिवोच्चत्थे। व्यत्यस्तहितनिःश्रेयसबुद्धिः। भोग) में निमग्न, हित और निःश्रेयस् मोक्ष में बाले य मंदिए मूढे, बालश्च मन्दो मूढः विपरीत बुद्धि वाला, अज्ञानी, मन्द और मूढ' जीव बज्झई मच्छिया व खेलंमि।। बध्यते मक्षिकेव श्वेले।। उसी तरह (कर्मों से) बन्ध जाता है जैसे श्लेष्म" सें मक्खी । ६. दुपरिच्चया इमे कामा, दुष्परित्यजा इमे कामाः ये काम-भोग दुस्त्यज हैं। अधीर पुरुषों द्वारा ये नो सुजहा अधीरपुरिसेहिं। नो सुहानाः अधीरपरुषैः । सुत्यज नहीं हैं। जो सुव्रती साधु हैं, वे दुस्तर अह संति सुव्वया साहू, अथ सन्ति सुव्रताः साधवः काम-भोगों को उसी प्रकार तर जाते हैं जैसे वणिक् जे तरंति अतरं वणिया व।। ये तरन्त्यतरं वणिज इव।। समुद्र को। ७. समणा मु एगे वयमाणा, श्रमणाः स्मः एके वदन्तः कुछ पशु की भांति अज्ञानी पुरुष 'हम श्रमण हैं' ऐसा पाणवहं मिया अयाणंता। प्राणवधं मृगा अजानन्तः । कहते हुए भी प्राण-वध को नहीं जानते। वे मन्द और मंदा निरयं गच्छंति, मन्दा निरयं गच्छन्ति बाल-पुरुष अपनी पापमयी दृष्टियों से नरक में बाला पावियाहिं दिट्ठीहिं।। बालाः पापिकाभिर्दृष्टिभिः।। जाते हैं। ५९ मूड, Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003626
Book TitleAgam 30 Mool 03 Uttaradhyayana Sutra Uttarajjhayanani Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2006
Total Pages770
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_uttaradhyayan
File Size25 MB
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