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________________ अध्ययन ८: श्लोक ८-१६ प्राण-वध का अनुमोदन करने वाला पुरुष कभी भी सर्वदुःखों से मुक्त नहीं हो सकता। उन आर्योंतीर्थड्करों ने" ऐसा कहा है, जिन्होंने इस साधु-धर्म (महाव्रत) की प्रज्ञापना की। जो जीवों की हिंसा नहीं करता वैसे मुनि को 'समित' (सम्यक् प्रवृत्त) कहा जाता है। उससे पाप-कर्म वैसे ही दूर हो जाते हैं, जैसे उन्नत प्रदेश से पानी। जगत् के आश्रित जो त्रस और स्थावर प्राणी हैं, उनके प्रति मन, वचन और काया--किसी भी प्रकार से दण्ड का प्रयोग न करे। उत्तरज्झयणाणि १४८ ८. न हु पाणवहं अणुजाणे, न खलु प्राणवधमनुजानन् मुच्चेज्ज कयाइ सव्वदुक्खाणं। मुच्येत कदाचित् सर्वदुःखैः। एवारिएहिं अक्खार्य, एवमार्यैराख्यातं जेहिं इमो साहुधम्मो पण्णत्तो।। यैरयं साधुधर्मः प्रज्ञप्तः।। ६. पाणे य नाइवाएज्जा, प्राणांश्च नातिपातयेत् से समिए त्ति वुच्चई ताई। स समित इत्युच्यते तादृक् । तओ से पावयं कम्म, ततः अथ पापकं कर्म निज्जाइ उदगं व थलाओ।। निर्याति उदकमिव स्थलात् ।। १०.जगनिस्सिएहिं भूएहिं, जगन्निथितेषु भूतेषु तसनामेहिं थावरेहिं च।। त्रसनामसु स्थावरेषु च। नो तेसिमारमे दंडं, न तेषु आरभेत दण्ड मणसा वयसा कायसा चेव।। मनसा वचसा कायेन चैव।। ११.सुद्धसणाओ नच्चाणं, शुद्घषणाः ज्ञात्वा तत्थ ठवेज्ज भिक्खू अप्पाणं। तत्र स्थापयेद् भिक्षुरात्मानम्। जायाए घासमेसेज्जा, यात्रायै घासमेषयेद् रसगिद्धे न सिया भिक्खाए।। रसगृद्धो न स्याद् भिक्षादः।। १२.पंताणि चेव सेवेज्जा, प्रान्त्यानि चैव सेवेत सीयपिंडं पुराणकुम्मासं। शीतपिण्ड पुराणकुल्माषम्। अदु वुक्कसं पुलागं वा, अथ 'बुक्कसं' पुलाकं वा जवणट्ठाए निसेवए मंथु ।। यमनार्थ निषेवेत मन्थुम् ।। १३.जे लक्खणं च सुविणं च, ये लक्षणं च स्वप्नं च अंगविज्जं च जे पउंजंति।। अङ्गविद्यां च ये प्रयुञ्जन्ति। न हु ते समणा वुच्चंति, न खलु ते श्रमणा उच्यन्ते एवं आयरिएहिं अक्खायं ।। एवमाचार्यैराख्यातम् ।। १४.इह जीवियं अणियमेत्ता, इह जीवितं अनियम्य पब्मट्ठा समाहिजोएहिं। प्रभ्रष्टाः समाधियोगेभ्यः। ते कामभोगरसगिद्धा, ते कामभोगरसगृद्धाः उववज्जति आसुरे काए।। उपपद्यन्ते आसुरे काये।। १५.तत्तो वि य उवट्टिता, ततोऽपि च उद्धृत्य संसारं बहु अणुपरियडंति। संसारं बहु अनुपर्यटन्ति। बहुकम्मलेवलित्ताणं, बहुकर्मलेपलिप्तानां बोही होइ सुदुल्लहा तेसिं।। बोधिर्भवति सुदुर्लभा तेषाम् ।। १६. कसिणं पि जो इमं लोयं, कृत्स्नमपि य इमं लोक पडिपुण्णं दलेज्ज इक्कस्स। प्रतिपूर्ण दद्यादेकस्मै। तेणावि से न संतुस्से, तेनापि स न सन्तुष्येत् इइ दुप्पूरए इमे आया।। इति दुष्पूरकोऽयमात्मा ।। भिक्षु शुद्ध एषणाओं को जानकर उनमें अपनी आत्मा को स्थापित करे। यात्रा (संयम-निर्वाह) के लिए भोजन की एषणा करे। भिक्षा-जीवी रसों में गृद्ध न हो। भिक्षु इन्द्रिय संयम के लिए प्रान्त (नीरस) अन्न-पान, शीत-पिण्ड, पुराने उड़द, बुक्कस (सारहीन), पुलाक (रूखा) या मंथु (वैर या सत्तू का चूर्ण) का सेवन करे।२० जो लक्षण-शास्त्र, स्वप्न-शास्त्र और अङ्गविद्या का प्रयोग करते हैं, उन्हें साधु नहीं कहा जाता-ऐसा आचार्यों ने कहा है।" जो इस जन्म में जीवन को अनियंत्रित रखकर२२ समाधि-योग से परिभ्रष्ट होते हैं, वे कामभोग और रसों से आसक्त बने हुए पुरुष असुर-काय में२५ उत्पन्न होते हैं। वहां से निकल कर भी वे संसार में बहुत पर्यटन करते हैं। वे प्रचुर कर्मों के लेप से लिप्त होते हैं। इसलिए उन्हें बोधि प्राप्त होना अत्यन्त दुर्लभ है। धन-धान्य से परिपूर्ण यह समूचा लोक भी यदि कोई किसी को दे दे-उससे भी वह संतुष्ट नहीं होतातृप्त नहीं होता, इतना दुष्पूर है यह आत्मा। Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003626
Book TitleAgam 30 Mool 03 Uttaradhyayana Sutra Uttarajjhayanani Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2006
Total Pages770
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_uttaradhyayan
File Size25 MB
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