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________________ उत्तरज्झयणाणि ४९६ अध्ययन २६ : सूत्र ४२,४३ टि० ५३,५४ सहज ही जन्म-मरण की परम्परा अल्प हो जाती है। प्रकट-लिङ्ग स्थविर-कल्पिक मुनि के रूप में समझा ५३. सद्भाव-प्रत्याख्यान से (सब्भावपच्चक्खाणेणं) जाने वाला। सद्भाव-प्रत्याख्यान का अर्थ 'परमार्थ रूप में होने वाला प्रशस्त-लिङ्ग-जीव-रक्षा के हेतुभूत रजोहरण आदि प्रत्याख्यान' है।' इस अवस्था को पूर्ण संवर या शैलेशी, जो को धारण करने वाला। चौदहवें गुणस्थान में अयोगी केवली के होती है, कहा जाता है। विशुद्ध-सम्यक्त्व-सम्यक्त्व की विशुद्धि करने वाला। इससे पूर्ववर्ती सब प्रत्याख्यान इसलिए अपूर्ण होते हैं कि उनमें समाप्त-सत्त्व-समिति--सत्त्व (पराक्रम) और समिति और प्रत्याख्यान करने की आवश्यकता शेष रहती है। इस (सम्यक् प्रवृत्ति) को प्राप्त करने वाला। भूमिका में परिपूर्ण प्रत्याख्यान होता है। उसमें फिर किसी सर्वप्राण-भूत-जीव-सत्त्वों में विश्सनीय रूप-किसी को प्रत्याख्यान की अपेक्षा नहीं रहती। इसीलिए इसे भी पीड़ा नहीं देने के कारण सबका विश्वास प्राप्त करने वाला। 'पारमार्थिक-प्रत्याख्यान' कहा गया है। इस भूमिका को प्राप्त अप्रतिलेख-उपकरणों की अल्पता के कारण अल्प आत्मा का फिर से आसव, प्रवृत्ति या बन्धन की भूमिका में भार प्रवेश नहीं होता, इसलिए इसके परिणाम को 'अनिवृत्ति' कहा जितेन्द्रिय-इन्द्रियों को वश में रखने वाला। गया है। ‘अनिवृत्ति' अर्थात् जिस स्थिति से निवर्तन नहीं विपुलतपःसमिति-समन्वागत-विपुलतप और समितियों का सर्वत्र प्रयोग करने वाला। होता-लौटना नहीं पड़ता। यह शुक्ल-ध्यान का चतुर्थ चरण प्रतिरूपता के परिणामों को देखते हुए 'प्रतिरूप' का है। इस अनिवृत्ति ध्यान की दशा में केवली के जो चार अर्थ 'स्थविर कल्पिक के सदृश वेश वाला' और 'प्रतिरूपता' अघात्यकर्म विद्यमान रहते हैं, वे क्षीण हो जाते हैं यह का अर्थ 'अधिक उपकरणों का त्याग' सही नहीं लगता। 'चत्तारि केवलिकम्मसे खवेइ' का भावार्थ है। 'केवलिकम्मंसे' मूलाराधना में अचेलत्व को 'जिन-प्रतिरूप' कहा है। 'जिन' शब्द का प्रयोग इस सूत्र के अतिरिक्त अट्ठावनवें और इकसठवें अर्थात् तीर्थकर अचेल होते हैं। सूत्र में भी हुआ है। 'कम्मंसे' शब्द इकहत्तरखें और बहत्तरवें 'जिन' के समान रूप (लिङ्ग) धारण करने वाले को सूत्र में प्रयुक्त हुआ है। 'कम्मंस' में जो 'अंस' शब्द है, उसका 'जिन-प्रतिरूप' कहा जाता है। प्रवचनसारोद्धार के अनुसार अर्थ कर्म-ग्रन्थ की परिभाषा के अनुसार 'सत्'-विद्यमान है। गच्छ में रहते हुए भी जिन-कल्पिक जैसे आचार का पालन ५४. (सूत्र ४३) करने वाला 'जिन-कल्पिक-प्रतिरूप' कहलाता है। यहां भी शांत्याचार्य के अनुसार 'प्रतिरूप' वह होता है, जिसका प्रतिरूप का अर्थ यही-'जिन के समान वेष वाला' यानि वेश स्थविर-कल्पिक मुनि के सरीखा हो और 'प्रतिरूपता' का जिन-कल्पिक होना चाहिए। अप्रमत्त आदि सारे विशेषणों पर अर्थ है 'अधिक उपकरणों का त्याग।" इस सूत्र में अप्रमत्त, विचार किया जाए तो यही अर्थ संगत लगता है। मूलाराधना प्रकट-लिङ्ग, प्रशस्त-लिङ्ग, विशुद्ध-सम्यक्त्व, समाप्त-सत्व- में अचेलकता के जो गण बतलाए हैं वे इस सूत्र के अप्रमत्त समिति, सर्वप्राण-भूत-जीव-सत्वों में विश्वसनीय रूप अप्रतिलेख, आदि विशेषणों के बहुत निकट हैंजितेन्द्रिय और विपुलतपःसमिति-समन्वागत-ये महत्त्वपूर्ण पद उत्तराध्ययन मूलाराधना हैं। बताया गया है कि प्रतिरूपता का परिणाम लाघव है। जो (१) प्रतिरूपता का फल अचेलकता का एक गुण लघुभूत होता है, वह अप्रमत्त आदि हो जाता है। शांत्याचार्य के -लाघव -लाघव' अनुसार प्रत्येक शब्द का अर्थ इस प्रकार है (२) अप्रमत्त विषय और देह सुखों में अप्रमत्त-प्रमाद के हेतुओं का परिहार करने वाला। अनादर' बृहद्वृति, पत्र ५८६ : तत्र सद्भावन-सर्वथा पुनःकरणासंभवात्परमार्थेन आपत्स्ववैकल्यकरमध्यवसानकर च, 'समितयश्च'---उक्तरूपाः, प्रत्याख्यानं सद्भावप्रत्याख्यानं सर्वसंवररूपा शैलेशीति यावत् । 'समाप्ताः' -परिपूर्णा यस्य स समाप्तसत्चसमितिः, सूत्र निष्टान्तस्य २. वही, पत्र ५८१ : न विद्यते निवृत्तिः–मुक्तिमप्राप्य निवर्त्तनं यस्मिंस्तद् प्राकृतत्वात्परनिपातः, तत एव सर्वप्राणभृतजीवसन्चेषु विश्वसनीयरूप अनिवृत्ति शुक्लध्यानं चतुर्थभेदरूपं जनयति। तत्पीडापरिहारिचातू, 'अपडिलेह' ति अल्पार्थ ना ततो सत्यूपेक्षिन ३. वही, पत्र ५८६ : 'कम्मंस' त्ति कार्मग्रन्थिकपरिभाषयाऽशशब्दस्य इत्यल्पोकरणत्वादल्पप्रत्युपक्षः, पठ्यते च–'अवडिलोहि ति जितानि सत्पर्यायत्वात् सत्कर्माणि केवलिसत्कर्माणि-भवोपनाहिणि क्षपयति। वशीकृतानि यतिराहमितिप्रत्ययात्कचित्परिणामान्यचात्य जीन्द्रियाणि येन वही, पत्र ५८६: प्रतिः-सादृश्ये, ततः प्रतीति--स्थविरकल्पिकादिसदृशं स तथा, विपुलेन-अनेकभेद नया विस्तीर्णेन तपसा समितिभिश्च रूप-वेषो यस्य स तथा तद्भावस्तत्ता तया--अधिको पकरण- सर्वविषयानुगतत्वेन विपुलाभिम समन्वागतो---युक्ता विपुलतपः ।। परिहाररूपया। समन्वागतश्चापि भवति। वही, पत्र ५८६-५६० : 'अप्रमत्तः' प्रमादहेतूनां परिहारत इतरेषां ६. मूलाराधना. २८५ : निण पडिरूवं नाग्यायारो। चांगीकरणतः, तथा 'प्रकटलिङ्ग' स्थविरादिकल्परूपेण वतीति ७. प्रवचनसागेद्धार, गाथा :१०, नि पत्र १२७ : जिनकल्पिकप्रतियो गच्छ। विज्ञायमानत्वात्, 'प्रशस्तलिङ्ग' जीवरक्षणहेतुः रजोहरणादिधारकत्वाद, ..मृलागधना, २१६३ । 'विशुद्धसम्यक्वः' तथाप्रतिपत्त्या सम्यक्त्वविशोधनात्, तथा 'सत्वं च'-- . वहीं, २।४। Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003626
Book TitleAgam 30 Mool 03 Uttaradhyayana Sutra Uttarajjhayanani Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2006
Total Pages770
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_uttaradhyayan
File Size25 MB
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