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________________ सम्यक्त्व - पराक्रम (३) प्रकट-लिङ्ग (४) प्रशस्त - लिङ्ग (५) विशुद्ध- सम्यक्त्व (६) समाप्त - सत्त्व समिति (७) सर्वप्राण- भूत-उ -जीव सत्त्वों में विश्वसनीय रूप (८) अप्रतिलेख (e) जितेन्द्रिय 9. मूलाराधना, २८६ । २. वही, २७७ । ३. वही, २१८५ । ४. वही, २१८५ ५. वही, २ । ८४ । ६. वही, २।८३ । ७. वही, २।८६ । ८. वही, २८५ । Jain Education International ४९७ नग्न्ता प्राप्त' प्रशस्त लिग' (अचेलकता उसी के लिए विहित है जिसका लिंग प्रशस्त है ) रागादि दोष परिहरण । वीर्याचार* विश्वासकारी रूप अप्रतिलेखन (१०) विपुलतपः समिति - समन्वागत उक्त तुलना से प्रतिरूपता का अर्थ 'अचेलता' ही प्रमाणित होता है। अचेल को सचेल की अपेक्षा बहुत अप्रमत्त रहना होता है। उसके पास विकार को छिपाने का कोई साधन नहीं होता। जो अचेल होता है, उसका लिङ्ग सहज ही प्रकट होता है। अचेल उसी को होना चाहिए, जिसका लिङ्ग प्रशस्त हो— विकृत आदि न हो । अचेल व्यक्ति का सम्यक्त्व - देह और आत्मा का भेद ज्ञान – विशुद्ध होता है। समाप्त- सत्त्व-समितिअचेल सत्त्व प्राप्त होता है अर्थात् अभय होता है। इसकी तुलना मूलाराधना (२८३) में 'गत भयत्व' शब्द से भी हो सकती है। समिति का अर्थ 'विविध प्रकार के आसन करने वाला' हो सकता है । अचेल की निर्विकारता प्रशस्त होती है, इसलिए वह सबका विश्वासपात्र होता है। अप्रतिलेखन अचेलता का सहज परिणाम है। अचेलता से जितेन्द्रिय होने की प्रवल प्रेरणा मिलती है। अचेल होना एक प्रकार का तप है। नग्नता, शीत, उष्ण, दंश-मशक ये परीषह सचेल की अपेक्षा अचेल को अधिक सहने होते हैं; इसलिए उसके विपुल तप होता है। इस प्रकार सारे पदों में एक श्रृंखला है। उससे अचेलकता के साथ उनकी कड़ी जुड़ जाती है। यहां मूलाराधना (२।७७ से ८६ तक) की गाथाएं और उनकी विजयोदया वृत्ति मननीय है । 1 स्थानांग के पांच कारणों से अचेलक को प्रशस्त कहा है - (१) अल्प प्रतिलेखन, (२) प्रशस्त लाघव, (३) वैश्वासिक रूप, (४) अनुज्ञात तप और (५) महान् इन्द्रिय - निग्रह । ये पांचों कारण प्रतिरूपता के परिणामों में आए हुए अतः प्रतिरूपता का अर्थ 'अचेलकता' करने में बहुत बड़ा आधार प्राप्त होता है | सर्व-समित-करण (इन्द्रिय) परीषह - सहन हैं 1 अध्ययन २६ : सूत्र ४४-४७ टि० ५५-५८ ५५. ( सूत्र ४४ ) तीर्थंकर- -पद-प्राप्ति के बीस हेतु बतलाए गए हैं। उनमें एक वैयावृत्त्य - सेवा भी है। साधु-सन्तों की सेवा करना महान् निर्जरा का हेतु है। उसके साथ पुण्य का भी प्रकृष्ट बन्ध होता है। इसीलिए उसका फल तीर्थंकर नामगोत्र का बन्ध बतलाया है । ५६. सर्वगुण सम्पन्नता से (सव्वगुणसंपन्नायाए) आत्म-मुक्ति के लिए ज्ञान, दर्शन और चारित्र - ये तीन गुण प्रयोजनीय होते हैं। जब तक निरावरण ज्ञान, पूर्ण दर्शन ( क्षायिक सम्यक्त्व) और पूर्ण चारित्र ( सर्व संवर) की प्राप्ति नहीं होती, तब तक सर्वगुण सम्पन्नता उपलब्ध नहीं होती । इसका अभिप्राय यह है कि कोरे ज्ञान, दर्शन या चारित्र की पूर्णता से मुक्ति नहीं होती। किन्तु जब तीनों परिपूर्ण होते हैं, तभी वह होती है। पुनरावर्तन, शारीरिक और मानसिक दुःख – ये सब गुण - विकलता के परिणाम हैं। सर्वगुण सम्पन्नता होने पर ये नहीं होते । ५७. (सूत्र ४६ ) 'वीतराग' स्नेह और तृष्णा की बन्धन - परम्परा का विच्छेद कर देता है । पुत्र आदि में जो प्रीति होती है, उसे स्नेह और धन आदि के प्रति जो लालसा होती है, उसे 'तृष्णा' कहा जाता है । स्नेह और तृष्णा की परम्परा उत्तरोत्तर बढ़ती रहती है, इसलिए इसके बन्धन को अनुबन्ध कहा गया है। वीतरागता के तीन फल निर्दिष्ट हैं- (१) स्नेहानुबन्ध का विच्छेद, (२) तृष्णानुबन्ध का विच्छेद और (३) मनोज्ञ शब्द आदि विषयों के प्रति विराग । वृत्तिकार ने प्रश्न उपस्थित किया है— कषाय- प्रत्याख्यान से वीतरागभाव उत्पन्न होता है- -यह पहले बताया जा चुका है । फिर प्रस्तुत सूत्र की पृथक् रचना क्यों ? उनका अभिमत है कि तृष्णा और स्नेह का मूल है राग और वही समस्त अनर्थों का मूल है। उसकी ओर विशेष ध्यान आकर्षित करने के लिए प्रस्तुत सूत्र की रचना की गई है।" ५८. क्षांति से (खंतीए) शांत्याचार्य ने क्षांति का अर्थ 'क्रोध-विजय' किया है। इस अर्थ के अनुसार यहां उन्हीं परीषहों पर विजय पाने की स्थिति प्राप्त है जो क्रोध विजय से सम्बन्धित है। क्रोधी मनुष्य गाली, वध आदि को नहीं सह सकता। क्रोध पर विजय ६. ठाणं, ५२०१ : पंचहि ठाणेहिं अचेलए पसत्थे भवति, तं जहाअप्पा पडिलेहा, लाघविए पसत्थे, रूवे वेसासिए तवे अणुण्णाते, विउले इंदियनिग्गहे। १०. नायाधम्मकहाओ ८ । ११. बृहद्वृत्ति, पत्र ५६० । १२. वही, पत्र ५६० : क्षान्तिः क्रोधजयः । १३. वही, पत्र ५६० 'परीषहान्' अर्थात् वधादीन् जयति । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003626
Book TitleAgam 30 Mool 03 Uttaradhyayana Sutra Uttarajjhayanani Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2006
Total Pages770
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_uttaradhyayan
File Size25 MB
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