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________________ अकाममरणीय १०९ अध्ययन ५: श्लोक १७-१८ टि०२५-२७ महाभारत (सभापर्व ५२।१३) में शकुनि को 'कृतहस्त' कहा गया वस्तुतः 'बुसीम' शब्द या तो देशी है जिसका संस्कृत रूप कोई है अर्थात् जो सदा जीत का दाव ही फेंकता है। होता ही नहीं और यदि देशी नहीं है तो इसका संस्कृत रूप पाणिनी के समय दोनों प्रकार के दाव फेंकने के लिए भाषा 'वृषीमत्' होना चाहिए। में अलग-अलग नामधातुएं चल गई थीं। उनका सूत्रकार ने 'वृषी' का अर्थ है—'मुनि का कुश आदि का आशन।" स्पष्ट उल्लेख किया है—कृतं गृण्हाति—कृतयति, कलिं सत्रकतांग में श्रमण के उपकरणों में 'वधिक' (भिसिग) का गृण्हाति- कलयति। (३१।२१) उल्लेख है। इसके सम्बन्ध में मुनि को 'वृषीमान' कहा जाता है। विधुर पंडित जातक में भी ‘कृतं गृण्हाति कलिं गृण्हाति' व्याकरण की दृष्टि से 'वुसीम' का संस्कृत रूप 'वृषीमत्' होता ऐसे प्रयोग हुए हैं। है। इसका प्रवृत्तिलभ्य अर्थ है—मुनि, संयमी या जितेन्द्रिय। जए के खेल के नियमों के अनुसार जब तक किसी निशीथ भाष्य में इसी अर्थ में 'चुसिराती" (सं० वृषिराजिन्) खिलाडी का 'कतदाव' आता रहता, वही पासा फेंकता जाता था। तथा 'वसि' (सं० वषिन) शब्द प्राप्त होते हैं। 'सि' का अर्थ पर जैसे ही 'कलिदाव' आता, पासा डालने की बारी दूसरे 'संविग्न' किया गया है। खिलाड़ी की हो जाती। सूत्रकृतांग में 'वुसीमओ' का अनेक बार प्रयोग हुआ है। २५. जुआरी (धुत्ते) चूर्णिकार ने इसके अर्थ इस प्रकार किये हैंधूर्त शब्द के अनेक अर्थ हैं-वंचक, ठग, मायावी, बुसिमतां वसूनि ज्ञानादीदि (१८।१६ चूर्णि, पृ०२१३)। जुआरी आदि। सामान्यतः यह शब्द 'ठग' के अर्थ में बहुत सिमानिति संयमवान् (१।११।१५ चूर्णि पृ० २४५)। प्रयुक्त होता है, परन्तु प्रस्तुत प्रकरण में यह जुआरी के अर्थ वसिमांश्च भगवान-साधुर्वा वुसीमान् (१।१५।४ चूर्णि पृ० २६६)। से व्यवहृत है। वुसिय वुसिमं वुत्तो (२।६।१४ चूर्णि, पृ० ४२३)। २६. (श्लोक १७) पहले अर्थ से लगता है कि चूर्णिकार 'वसुमओ' पाठ प्रस्तुत अध्ययन के प्रथम सतरह श्लोकों में अज्ञानी की व्याख्या कर रहे हैं। आयारो ११७४ में 'वसुम' शब्द मुनि व्यक्तियों की विचारधारा, जीवन शैली, मरणकाल की स्थिति तथा के लिए प्रयुक्त हुआ है। शीलांकसूरि ने इसका अर्थ 'वसुमान्' परलोकगमन की दिशा का वर्णन प्राप्त होता है। शेष आगे के सम्यक्त्व आदि धन से धनी–किया है।" दूसरे अर्थ में 'वुसि' श्लोकों में संयमी मुनि और व्रती श्रावकों की विचारधारा, जीवन संयम का पर्यायवाची है। तीसरे में वही भगवान् या साधु के शैली, मारणान्तिक अवधारणा और सुगतिगमन का सुन्दर वर्णन लिये प्रयुक्त है। चौथा अर्थ स्पष्ट नहीं है। शीलांकसूरि ने वहां 'वुसिम' का अर्थ संयमवान् किया है।'२ लगता यह है 'वृषी' २७. जितेन्द्रिय पुरुषों का (वुसीमओ) उपकरण के कारण वृषीमान् (वुसीम) मुनि का एक नाम बन यहां बहुवचन के स्थान पर एकवचन है। बृहद्वृत्ति में गया। इसका संस्कृत रूप है 'वश्यवताम्'। आत्मा और इन्द्रिय जिसके बौद्ध साहित्य में वशी या वृषी का अर्थ है-कौशल । वश्य-अधीन होते हैं, उसे 'वश्यवान' कहा जाता है। 'वसीम उसके पांच प्रकार हैं....... के दो अर्थ और किए गए हैं-(१) साधु गुणों में बसने वाला १. आवर्जन वशी-मन को ध्यान में लगाने का कौशल। और (२) संविग्न । २. समापजनवशी-ध्यान में प्रवेश पाने का कौशल। सरपेन्टियर ने लिखा है कि इसका संस्कृत रूप 'वश्यवन्त' ३. अधिष्ठानवशी-ध्यान में अधिष्ठान बनाये रखने का शंकास्पद है। मैं इसके स्थान पर दूसरा उचित शब्द नहीं दे कौशल। सकता। परन्तु इसके स्थान पर 'व्यवसायवन्तः' शब्द की योजना ४. व्युत्थानवशी--ध्यान संपन्न करने का कौशल। कुछ हद तक संभव हो सकती है।' ५. प्रत्यवेक्षणवशी-ध्यान की सारी विधियों तथा तथ्यों का सरपेन्टियर की यह संभावना बहुत उपयोगी नहीं है। समालोचन करने में कौशल । १. पाणिनीकालीन भारतवर्ष, पृ० १६७। ५. उत्तराध्ययन सूत्र, पृ० २६६ का फुटनोट १८ । २. जातक, संख्या ५४५। ६. अभिधान चिंतामणि, ३४८०। ३. (क) बृहद्वृत्ति, पत्र २४८ : धूर्त इव-द्यूतकार इव। ७. सूयगडो २।२।३०: दंडगं वा, छत्तगं वा, भण्डगं वा, मत्तगं वा, लट्टिगं (ख) अभिधान चिंतामणि ३१४६ : कितवो द्यूतकधूर्तोऽक्षधूर्तः। वा, भिसिगं वा...। ४. (क) बृहद्वृत्ति, पत्र २४९ : 'वुसीमतो' त्ति, आर्षत्त्वावश्यवां वश्य ८. निशीथ भाष्य, गाथा ५४२०। इत्यावत्तः, स चेहात्मा इन्द्रियाणि था, वश्यानि विद्यन्ते येषां ते अमी ६. वही, गाथा ५४२१। वश्यवन्तः तेषाम्, अयमपरः सम्प्रदायार्थः---- वसंति वा साहुगुणेहिं १०. वही, गाथा ५४२१ । वुसीमन्तः, अहवा वुसीमा—संविग्गां तेसिं ति। ११. आयारो १११७४, वृत्ति-भाव वसूनि सम्यक्त्वादीनि तानि यस्य यस्मिन (ख) उत्तराध्ययन चूर्णि, पृष्ट १३७ : 'वुसीमतो' वशे येषामिन्द्रियाणिवा सन्ति स वसुमान् द्रव्यवानित्यर्थः ।। ते भवति वुसीम, वसंति वा साधुगुणेहिं बुसीमंतः, अथवा वुसीमंतः १२. सूयगडो २।६।१४, वृत्ति १४४ : बुसिमति संयमवान् । ते संविग्गा, तेसिं वुसीमतां संविग्गाणं वा। Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003626
Book TitleAgam 30 Mool 03 Uttaradhyayana Sutra Uttarajjhayanani Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2006
Total Pages770
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_uttaradhyayan
File Size25 MB
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