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________________ यति जराजा बाईवृत्तिासादिकमित्यक्षो धू-धुरा हो उत्तरज्झयणाणि १०८ अध्ययन ५ : श्लोक १२-१६ टि० १६-२४ मवित्री भूतानां परिणतिमनालोच्य नियता, २३. धुरी (अक्खे) पुरा यत् यत् किञ्चिद् विहितमशुभ यौवनमदात्। अक्ष शब्द के अनेक अर्थ हैं—पहिया, चक्र, चौसर, पुनः प्रत्यासन्ने महति परलोकैकगमने, पहिए का धुरा, गाड़ी का जुआ आदि। तदेवैकं पुंसां व्यथयति जराजीवपुषाम् ॥ प्रस्तुत श्लोक में अक्ष का अर्थ धुरा है। थुरा का अर्थ हैसुखबोधा में एक प्राचीन गाथा उद्धृत है'--- लकड़ी या लोहे का वह डंडा जिसके सहारे पहिया घूमता है। कीरांति जाई जोवणमएण अवियारिऊण कज्जाई। वृत्ति में जो निरुक्त है वह इसी अर्थ का द्योतक है-अश्नीते वयपरिणामे सरियाई ताई हियए खुडुक्कांति॥ नवनीतादिकमित्यक्षो धू:-जो स्निग्ध पदार्थ—धी, तेल आदि से १९. स्थानों (ठाणा) व्याप्त रहता है, वह धू-धुरा होता है। २४. एक ही दाव में (कलिना) वृत्ति में इसके चार अर्थ प्राप्त हैं ...--- १. नारकों का उत्पत्ति-स्थान-नारक संकरे मंह वाले चूर्णिकार कलि के विषय में मौन हैं। शान्त्याचार्य और नेमिचन्द्र ने 'कलिना दायेन' इतना कहकर छोड़ दिया है।" घड़ों आदि में उत्पन्न होते हैं। २. एक ही नरक में सीमन्तक, अप्रतिष्ठान भिन्न-भिन्न किन्तु अन्य प्राचीन ग्रन्थों के अनुसार जुए में दो प्रकार के दाव होते थे-कृतदाव और कलिदाव। 'कृत' जीत का दाव स्थान। है और 'कलि' हार का। दोनों एक-दूसरे के विपरीत हैं। ३. कुंभी, वैतरणी, असिपत्रक वनस्थान आदि। ४. भिन्न-भिन्न आयुष्य वाले नरक-स्थान। सूत्रकृतांग के अनुसार जुआ चार अक्षों से खेला जाता था। उनके नाम हैं२०. जहां प्रगाढ वेदना है (पगाढा जत्थ वेयणा) १. कलि—एकक। ३. त्रेता—त्रिक। प्रगाढ के तीन अर्थ हैं—निरंतर, तीव्र और उत्कट। चूर्णि २. द्वापर-द्विक। ४. कृत-चतुष्क। में वेदना के दो प्रकार निर्दिष्ट हैं-शीत और उष्ण वेदना अथवा चारों पासे सीधे या औंधे एक से पड़ते हैं, उसे 'कृत' शारीरिक और मानसिक वेदना। कहा जाता है। यह जीत का दाव है। एक, दो या तीन पासे २१. औपपातिक (उववाइयं) उल्टे पड़ते हैं उन्हें क्रमशः कलि, द्वापर, त्रेता कहा जाता है। ये जीवों की उत्पत्ति के तीन प्रकार हैं-गर्भ, सम्मूर्छन और हार के दाव हैं। कुशल जुआरी इन्हें छोड़ ‘कृतदाव' ही लेता उपपात । पशु, पक्षी, मनुष्य आदि गर्भज होते हैं, द्वीन्द्रिय आदि है।" जीव सम्मूर्छनज और नारक तथा देव औपपातिक होते हैं। काशिका में लिखा गया है कि पंचिका नाम का जुआ औपपातिक जीव अन्तर्मुहूर्त मात्र में पूर्ण शरीर वाले हो जाते हैं। अक्ष या पांच शलकाओं से खेला जाता था। जब पांचों पासे अतः नरक में उत्पन्न होते ही वे जीव नरक की वेदना से सीधे या औंधे एक से गिरते हैं तब पासा फेंकने वाला जीतता अभिभूत हो जाते हैं। है, इसे 'कृतदाव' कहते हैं। 'कलिदाव' इससे विपरीत है। जब २२. कृत कर्मों के अनुसार (आहाकम्मे हिं) कोई पासा उलटा या सीधा गिरता है तब उसे 'कलिदाव' कहते ___ चूर्णिकार और नेमिचन्द्र ने इसका अर्थ 'कों के अनुसार' हैं। किया है। शान्त्याचार्य ने इसका मूल अर्थ 'अपने किए हुए कर्मों भूरिदत्त जातक में 'कलि' और 'कृत' दोनों को एक-दूसरे के द्वारा किया है और विकल्प में इसका अर्थ किया है...-'कर्मों के विपरीत माना है।'२ के अनुसार'। छान्दोग्य उपनिषद् में भी ‘कृत' जीत का दाव है।" १. सुखबोधा, पत्र १०४। यद्वाऽर्षत्चात् 'आहेति' आधाय कृत्वा, कर्माणीति गम्यते, ततस्तैरेव २. बृहद्वृत्ति, पत्र २४७। कर्मभिः,...यद्वा-'यथाकर्मभिः' गमिष्यमाणगत्यनुरूपैः तीव्रतीव्रतरायनु३. (क) उत्तराध्ययन चूर्णि, पृ० १३५ : पगाढा णाम णिरंतराः तीव्राः भावान्वितैः। उक्कड़ा। ८. बृहद्वृत्ति, पत्र २४७। (ख) बृहद्वृत्ति, पत्र २४७। ६. उत्तराध्ययन चूर्णि, पृ० १३६ । ४. उत्तराध्ययन चूर्णि, पृ० १३५ : वेद्यंत इति वेदनाः शीता उष्णा च, अथवा १०. (क) बृहद्वृत्ति, पत्र २४८। शारीरमानसाः। (ख) सुखबोधा, पत्र १०५। ५. वही, पृ० १३५ : उपपातात्संजातमीपपातिक, न तत्र गर्भव्युक्रांतिरस्ति ११. सूयगडो, १२।४५ : येन गर्भकालान्तरितं तन्नरकदुःखं स्यात, ते हि उत्पन्नमात्रा एव कुजए अपराजिए जहा अक्खेहिं कुसलेहिं दीवयं। नरकवेदनाभिरभिभूयन्ते। कडमेव गहाय णो कलिं णो तेयं णो चेव दापरं ।। ६. (क) उत्तराध्ययन चूर्णि, पृ० १३५ : आधाकम्मेहिं यथाकर्मभिः । १२. जातक, संख्या ५४३।। (ख) सुखबोधा, पत्र १०५ । १३. छान्दोग्य उपनिषद्, ४।१18 : यथा कृतायविजितायाधरेयाः संयन्त्येवमेन बृहद्वृत्ति, पत्र २४७ : 'आहाकम्मेहिं' ति आधानमाधाकरणम्, आत्मनेति सर्वं तदभिसमेति। गम्यते, तदुपलक्षितानि कर्माण्याथाकर्माणि, तैः आधाकर्मभिः-स्वकृतकर्मभिः, Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003626
Book TitleAgam 30 Mool 03 Uttaradhyayana Sutra Uttarajjhayanani Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2006
Total Pages770
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_uttaradhyayan
File Size25 MB
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