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________________ अकाममरणीय १०७ चौदह भूतग्रामों— जीवसमूहों का उल्लेख है।' चूर्णिकार ने भी सूक्ष्म, बादर, पर्याप्त, अपर्याप्त के भेद से चौदह प्रकार के जीवों का उल्लेख किया है।" वृत्ति में इसका अर्थ है-प्राणियों का समूह | १५. वेश परिवर्तन कर अपने आपको दूसरे रूप में प्रकट करने वाला (सढे) इसका सामान्य अर्थ है—धूर्त, मूढ़, आलसी। यहां इसका अर्थ-वेष परिवर्तन कर अपने आपको दूसरे रूप में प्रगट करने वाला है।" टीकाओं में 'मंडिक चोरवत्' ऐसा उल्लेख किया है। मंडिक चोर की कथा इसी आगम के चौथे अध्ययन के सातवें श्लोक की व्याख्या में है । १६. (श्लोक १०) प्रस्तुत श्लोक में व्यक्ति की अहंमन्यता और आसक्ति का सुन्दर चित्रण है । व्यक्ति मन, वचन और काया से मत्त हुआ होता है। शरीर से मत्त होकर वह मानने लगता है--मैं कितना रूप-संपन्न और शक्ति-संपन्न हूं ! वाणी का अहं करते हुए वह सोचता है - मैं कितना सु-स्वर हूं ! मेरी वाणी में कैसा जादू है ! मानसिक अहं के वशीभूत होकर वह सोचता है—ओह ! मैं अपूर्व अवधारणा शक्ति से संपन्न हूं। इस प्रकार वह अपना गुण-ख्यापन करता है। आसक्ति के दो मुख्य हेतु हैं—धन और स्त्री । धन की आसक्ति से वह अदत्त का आदान करता है और परिग्रह का संचय करता है। स्त्री की आसक्ति से वह स्त्री को संसार का सर्वस्व मानने लगता है— सत्यं व हिवं वच्मि सारं वच्मि पुनः पुनः । अस्मिन्नसारे संसारे, सारं सारंवलोचनाः ।। अहंमन्यता और आसक्ति से ग्रस्त व्यक्ति भीतर के अशुद्ध भावों से तथा बाहर की असत् प्रवृत्ति से दोनों ओर से कर्मों का बंधन करता है। आस्था और आचरण—दोनों से वह कर्म का संचय करता है। वह इस लोक में भी जानलेवा रोगों से अभिभूत होता है और मरण के पश्चात् भी दुर्गति में जाता है । सूत्रकार ने यहां शिशुनाग का उदाहरण प्रस्तुत किया है। शिशुनाग - अलस या केंचुआ मिट्टी खाता है। उसका शरीर गीला होता है और वह निरंतर मिट्टी के ढेरों में ही घूमता रहता है, इसलिए उसके शरीर पर मिट्टी चिपक जाती है। वह शीतयोनिक होता है अतः सूर्य की उत्तप्त किरणों से स्नेह १. समवाओ, समवाय १४ ।9। २. उत्तराध्ययन चूर्णि, पृ० १३३ भूतग्गामं चोद्दसविहं...एवं चोद्दसविर्हपि । ३. बृहद्वृत्ति, पत्र २४५ भूयगामं ति भूताः प्राणिनस्तेषां ग्रामः समूहः । ४. वही, पत्र २४५ 'शट:' तत्तन्नेपथ्यादिकरणतोऽन्यथाभूतमात्मानमन्यथा दर्शयति । Jain Education International अध्ययन ५ श्लोक ६-११ टि० १५-१८ गीलापन सूख जाता है। वह तब गर्म मिट्टी से झुलस-झुलस कर मर जाता है। इस प्रकार दोनों ओर से गृहीत मिट्टी उसके विनाश का कारण बन जाती है। * चूर्णिकार ने 'दुहओ' — दो प्रकार से—के अनेक विकल्प किए हैं 12 जैसे- स्वयं करता हुआ या दूसरों से करवाता हुआ, अन्तःकरण से या वाणी से, राग से या द्वेष से पुण्य या पाप का, इहलोक बन्धन या परलोक बंधन संचय करता है । १७. आतंक से (आर्यकेण) आतंक का अर्थ है- शीघ्रघाती रोग। शिरःशूल, विसूचिका आदि रोग आतंक माने जाते हैं। आज के परिप्रेक्ष्य में हृदय रोग इस कोटि में आ सकता है। चूर्णि में आतंक शब्द का केवल निरुक्त प्राप्त है-जो विविध प्रकार के दुःखों से जीवन को तंकित करता है--कष्टमय बनाता है, वह है आतंक १८. (पभीओ.....अप्पणो ) जब व्यक्ति बुढ़ापे में जर्जर हो जाता है या रोगग्रस्त हो जाता है, तब उसे मृत्यु की सन्निकटता का भान होता है । वह सोचता है, अब यहां से सब कुछ छोड़कर जाना होगा। 'अब आगे क्या होगा' इस आशंका से वह भयभीत हो जाता है। वह अतीत की स्मृति करता है और अपने सारे आचरणों पर दृष्टिपात करता है। वह सोचता है— मैंने कुछ भी शुभ नहीं किया। केवल हिंसा, झूट, असत् आचरण में ही सदा लिप्त रहा। मैंने धर्म और धर्मगुरुओं की निन्दा की, असत्य आरोप लगाए और न जाने क्या-क्या अनर्थ किया। सारा अतीत उसकी आंखों के सामने नाचने लगता है। वह सोचता है, अरे, मैंने ये सारे पापकारी आचरण इस विचार से प्रेरित होकर किए थे कि मानो मैं सदा अजर-अमर रहूंगा, कभी नहीं मरूंगा। मैं भूल गया था कि जो जन्मता है, वह एक दिन अवश्य ही मरता है । 'कम्मसच्चा हु पाणिणो' भगवान की इस वाणी को भी मैं भूल गया था। किए हुए कर्मों का भोग अवश्य ही करना होता है 1 मृत्यु के भय के साथ-साथ उसको नरक का भय भी सताता है। नरक प्रत्यक्ष नहीं है, पर उसके विचारों में नरक प्रत्यक्ष होता है और वह संत्रस्त होकर 'कर्मानुप्रेक्षी' बन जाता है— अपने समस्त आचरणों को देखता है। वृत्तिकार ने यहां एक सुन्दर श्लोक प्रस्तुत किया है उत्तराध्ययन चूर्ण, पृ० १३४ । वही, पृ० १३४ । बृहद्वृत्ति, पत्र २४६ आतंकेन- आशुघातिना शूलविसूचिकादिरोगेण । उत्तराध्ययन चूर्ण, पृ० १३४ : तैस्तैर्दुःखप्रकारैरात्मानं तंकयतीत्यातंकः । ६. बृहद्वृत्ति, पत्र ३४६ । ८. ५. ६. ७. For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003626
Book TitleAgam 30 Mool 03 Uttaradhyayana Sutra Uttarajjhayanani Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2006
Total Pages770
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_uttaradhyayan
File Size25 MB
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