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________________ उत्तरज्झयणाणि १०६ चक्षु दृष्ट है। इन दो पदों में अनात्मवादियों के अभिमत का उल्लेख है । वे प्रत्यक्ष को ही वास्तविक मानते हैं तथा भूत और अनागत को अवास्तविक । कामासक्त व्यक्तियों का यह चिन्तन अस्वाभाविक नहीं है। ११. (हत्यागया इमे कामा, कालिया ने अणागया) चूर्णिकार ने लिखा है— कोई मूर्ख भी अपनी गांठ में बन्धे हुए चावलों को छोड़कर भविष्य में होने वाले चावलों के लिए आरम्भ नहीं करता ।" जो आत्मा, परलोक व धर्म का मर्म समझता है वह अनागत भोगों की प्राप्ति के लिए हस्तगत भोगों को नहीं छोड़ता । इसलिए अनात्मवादियों का यह चिन्तन यथार्थ नहीं है। इसकी चर्चा नौवें अध्ययन में श्लोक ५१-५३ में भी हुई है। १२. क्लेश (केसं ) शान्त्याचार्य ने लिखा है— हाथ में आए हुए द्रव्यों को कोई छेद डाला। एक बार एक राजपुत्र उस वट वृक्ष की छाया में भी पैरों से नहीं रौंदता । जा बैठा । उसने छिदे हुए पत्रों को देखकर ग्वाले से पूछा -- ये किसने छेदे हैं? उसने कहा—ये मैंने छेदे हैं। राजपुत्र ने कहा- किसलिए ? ग्वाले ने कहा- विनोद के लिए। तब राजपुत्र ने उसे धन का प्रलोभन देते हुए कहा — मैं कहूं कि उसकी आंखें बींध दो, तो उसकी आंखें क्या तू बींध देगा ? ग्वाले ने कहा- हां, मैं बींध सकता हूं, यदि वह मेरे नजदीक हो । राजपुत्र उसे अपने नगर ले गया। राजपथ में आए हुए प्रासाद में उसे ठहरा दिया। उस राजपुत्र का भाई राजा था। वह उसी मार्ग से अश्वरथ पर चढ़कर जाता था। राजपुत्र ने ग्वाले से कहा—इसकी आंखें फोड़ डाल। उस ग्वाले ने अपने गोफन से उसकी दोनों आंखें फोड़ डालीं। अब वह राजपुत्र राजा बन गया। उसने ग्वाले से कहा- -बोल, तू क्या चाहता है ? उसने -आप मुझे वह गांव दें जहां मैं रहता हूं। राजा ने उसे वही गांव दे दिया। उसी सीमान्त के गांव में उसने ईख की खेती की और तुम्बी की बेल लगाई। गुड़ हुआ और तुम्बे हुए। उसने तुम्बों को गुड़ में पका गुड़-तुम्बक तैयार किया। उसे खाता और गाता कहा क्लेश शब्द के अनेक अर्थ हैं—पीड़ा, परिताप, शारीरिक या मानसिक वेदना, दुःख, क्रोध, पाप आदि । प्रस्तुत प्रसंग में क्लेश का अर्थ है—संक्लिष्ट परिणाम । जो व्यक्ति कामभोगों में अनुरक्त होता है, वह शारीरिक और मानसिक उत्ताप से उत्तप्त रहता है । पतंजलि ने क्लेश के पांच प्रकार बतलाए हैं—अविद्या, अस्मिता, राग, द्वेष और अभिनिवेश । गीता में कहा है-- जो व्यक्ति विषयों का चिन्तन निरंतर करता रहता है, उसमें उन विषयों के प्रति आसक्ति पैदा हो जाती है। आसक्ति से काम, काम से क्रोध, क्रोध से संमूढता, संमूढता से स्मृतिभ्रंश, स्मृतिभ्रंश से बुद्धि का नाश और बुद्धि-नाश से व्यक्ति स्वयं नष्ट हो जाता है।* प्रस्तुत श्लोक में भी यही प्रतिपाद्य है कि कामभोग की आसक्ति से क्लेश पैदा होता है। वह व्यक्ति आसक्ति के संक्लिष्ट परिणामों के आवर्त में फंस कर नष्ट हो जाता है। कामभोग से होने वाला क्लेश बहुत दीर्घकालीन होता है। सुखबोधा में इसकी पुष्टि के लिए एक श्लोक उद्धृत किया गया अध्ययन ५ श्लोक ६-८ टि० ११-१४ १३. प्रयोजनवश अथवा बिना प्रयोजन ही (अट्ठाए य अणद्वार) हिंसा के दो प्रकार हैं-अर्थ-हिंसा और अनर्थ हिंसा । इन्हें एक उदाहरण के द्वारा समझाया गया है एक ग्वाला था। वह प्रतिदिन बकरियों को चराने जाता था। मध्याहून में बकरियों को एक वट वृक्ष के नीचे बिठाकर स्वयं सीधा सोकर बांस के गोफन से बेर की गुठलियों को फेंक बरगद के पत्रों को छेदता था। इस प्रकार उसने प्रायः पत्तों को १. उत्तराध्ययन चूर्ण, पृष्ठ १३२ : न हि कश्चित् मुग्धोऽपि ओदनं बलनकं मुक्त्वा कालिकस्योदनस्यारंभं करोति । २. बृहद्वृत्ति पत्र २४३ । ३. ४. पातंजलयोगदर्शन २३ अविद्यास्मितारागद्वेषाभिनिवेशाः पञ्च क्लेशाः । गीता २१६२, ६३ ध्यायतो विषयान् पुंसः, संगस्तेषूपजायते । संगात् संजायते कामः कामात् क्रोधोऽभिजायते ।। Jain Education International अट्टमट्टं च सिक्खिजा, सिक्खियं ण णिरत्थं । अट्टमट्टपसाएण, भुजए गुतुम्बयम् ।।" अर्थात् उटपटांग जो भी हो सीखना चाहिए। सीखा हुआ व्यर्थ नहीं जाता। इसी अट्टमट्ट के प्रसाद से यह गुड़तुम्बा मिल रहा है। ग्वाला पत्रों को बिना प्रयोजन छेदता था और उसने आंखों को प्रयोजनवश छेदा । 1 यह उदाहरण एक स्थूल भावना का स्पर्श करता है साधारण उद्देश्य की पूर्ति के लिए राजा की आंखें फोड़ डाली वरि विसु भुजिउ मं विसय, एक्कसि विसिण मरति । गईं—यह वस्तुतः अनर्थ हिंसा ही है। अर्थ-हिंसा उसे कहा जा नर विसयामिसमोहिया, बहुसो नरइ पडति । । 1 सकता है, जहां प्रयोजन की अनिवार्यता हो । १४. प्राणी समूह (भूयग्गाम) इसका आशय है कि विष पीना अच्छा है, विषय नहीं । मनुष्य विष से एक ही बार मरते हैं, किन्तु विषय रूप मांस में मोहित मनुष्य अनेक बार मरते हैं-नरक में जाते हैं। ५. ६. - सामान्यतः 'भूत' का अर्थ है--प्राणी और ग्राम का अर्थ -समूह । भूतग्राम अर्थात् प्राणियों का समूह । समवायांग में सुखबोधा, पत्र १०३ । बृहद्वृत्ति, पत्र २४४, २४५ । For Private & Personal Use Only क्रोधाद् भवति संमोहः, संमोहात् स्मृतिविभ्रमः । स्मृतिभ्रंशाद् बुद्धिनाशः, बुद्धिनाशात् प्रणश्यति ।। www.jainelibrary.org
SR No.003626
Book TitleAgam 30 Mool 03 Uttaradhyayana Sutra Uttarajjhayanani Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2006
Total Pages770
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_uttaradhyayan
File Size25 MB
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