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________________ उत्तरज्झयणाणि अध्ययन ५ : श्लोक १६-२१ टि० २८-३२ ये पांच प्रकार के वशी (कौशल) ध्यान में प्रवेश करने की सर्वव्रती। इस श्लोक में बताया गया है कि अव्रती या नामधारी कुशलता, योग्यता और गति में तीव्रता उत्पन्न करते हैं। इनसे भिक्षुओं से देशव्रती गृहस्थ संयम से प्रधान होते हैं और उनकी व्यक्ति में ध्यान पर पूरा नियन्त्रण प्राप्त हो जाता है। अपेक्षा सर्वव्रती भिक्षु संयम से प्रधान होते हैं। इसे एक उदाहरण २८. प्रसन्न (विप्पसन्न) द्वारा समझाया गया है।'यह मरण का विशेषण है। जो व्यक्ति मरण-काल में विविध 'एक श्रावक ने साधु से पूछा-'श्रावक और साधुओं में भावनाओं से अपनी आत्मा को भावित करता है, मूर्छा से कितना अन्तर है ? ' साधु ने कहा-'सरसों और मन्दर पर्वत अपहत नहीं होता, अनाकुल रहता हुआ प्रसन्नता से मरण का जितना। तब उसने पुनः आकुल होकर पूछा---'कुलिंगी (वेषधारी) वरण करता है, उसका मरण विप्रसन्न मरण कहलाता है। और श्रावक में कितना अन्तर है?' साधु ने कहा---'वही, सरसों २९. विविध प्रकार के शील वाले (नाणासीला) और मन्दर पर्वत जितना।' उसे समाधान मिला। कहा भी है गृहस्थ नानाशील-विविध शील वाले, विभिन्न रुचि वाले सुविहित आचार वाले मुनियों के श्रावक देश विरत होते हैं। और विभिन्न अभिप्राय वाले होते हैं। इसकी व्याख्या करते हुए कुतीर्थिक उनकी सौवीं कला को भी प्राप्त नहीं होते। नेमिचन्द्र ने लिखा है—“कई कहते हैं-गृहस्थाश्रम का पालन प्रस्तुत श्लोक के प्रसंग में आचार्य नेमिचन्द्र की वृत्ति में करना ही महाव्रत है।" कई कहते हैं-'गृहस्थाश्रम से उत्कष्ट एक संदर्भ प्राप्त हैधर्म न हुआ और न होगा।' जो शूरवीर होते हैं, वे इसका एक बार एक श्रावक ने साधु से पूछा-भंते ! श्रावकों में पालन करते है और क्लीव व्यक्ति पाखण्ड का आश्रय लेते हैं। और साधुओं में अन्तर क्या है? वत्स! दोनों में सर्षप और कई कहते हैं-'सात सौ शिक्षाप्रद गृहस्थों के व्रत हैं' आदि-आदि। मन्दर पर्वत जितना अन्तर है। यह सुनकर श्रावक का मन ३०. विषमशील वाले (विसमसीला) आकुल-व्याकुल हो गया। उसने पुनः पूछा-भंते ! कुलिंगी साधु भी विषमशील वाले अर्थात् विषम आचार वाले होते साधुओं में और श्रावकों में क्या अन्तर है? साधु ने कहाहैं। शान्त्याचार्य ने लिखा है-कई पांच यम और पांच नियमों दोनों में सर्षप और मन्दर पर्वत जितना अन्तर है। यह सनकर को, कई कन्द, मुल, फल के आहार को और कई आत्म-तत्त्व श्रावक का मन आश्वस्त हुआ। एक पद्य हैके परिज्ञान को ही व्रत मानते हैं। देसिक्कदेसविरया समणाणं सावगा सुविहियाणं। चूर्णिकार के अनुसार-कुछ कुप्रवचन-भिक्षु अभ्युदय की तेसिं परपासंडा एक्कपि कलं नग्गहन्ति। ही कामना करते हैं, जैसे तापस और पांडुरक (शिवभक्त, देशविरति श्रावक सुविहित साधुओं की बराबरी नहीं कर संन्यासी)। जो मोक्ष चाहते हैं, वे भी उसके साधन को सम्यक सकते, उनकी सोलहवीं कला के एक अंश की भी तुलना में नहीं प्रकार से नहीं जानते। वे आरम्भ (हिंसा) से मोक्ष मानते हैं। आ सकते। इसी प्रकार पासंडी साधु इन श्रावकों की आंशिक लोकोत्तर भिक्षु भी सबके सब निदान और शल्य रहित नहीं होते. तुलना में भी नहीं ठहर सकते। आशंसा रहित तप करने वाले नहीं होते, इसलिए भिक्षुओं को ३२. साधु की (परियागयं) विषम-शील कहा है। वृत्तिकार ने 'पर्यागत' का अर्थ-पर्याय-आगत-प्रव्रजित ३१. (श्लोक २०) किया है। 'पर्यागत' शब्द ही प्रव्रजित के अर्थ में व्यवहृत है।' तीन प्रकार के मनुष्य होते हैं-अवती, देशव्रती और इसलिए 'पर्यायागत' शब्द मानकर उसके 'या' को लोप करने १. उत्तराध्ययन चूर्णि, पृ० १३७ : नानार्थांतरत्वेन शीलयंति तदिति शीलं तथा तापसाः पांडुरागाश्च, येऽपि मोक्षायोत्थिता तेऽपि तमन्यथा पश्यन्ति. स्वभावः, अगारे तिष्ठतीत्यागारत्था, ते हि नानाशीला नानारुचयो ..तथैव लोकोत्तरभिक्षयोऽपि ण सव्वे अणिदाणकरा णिस्सल्ला वा, ण वा नानाच्छंदा भवंति। सब्वे आसंसापयोगनिरुपहततपसो भवंति इत्यतो विसमसीला य भिक्षुणो। सुखबोधा, पत्र १०६ : तेषु हि गृहिणस्तावद् अत्यन्तनानाशीला एव, यतः ५. (क) बृहद्वृत्ति, पत्र २५० तथा च वृद्धसम्प्रदायः-एगो सावगो साहुं केचित् गृहाश्रमप्रतिपालनमेव महाव्रतमिति प्रतिपन्नाः । पुच्छति-सावगाणं साहूणं किमंतरं? साहुणा भण्णतिगृहाश्रमपरो धर्मों, न भूतो न भविष्यति। सरिसवमंदरंतरं, ततो सो आउलीहूओ पुणो पुच्छति-कुलिंगीणं पालयन्ति नराः शूराः क्लीबाः पाखण्डमाश्रिताः ।। १।। सावगाण य किमंतरं?, तेण भण्णति-तदेव सरिसवमंदरंतरंति, इति वचनात् । अन्ये तु 'सप्तशिक्षापदशतानि गृहिणां व्रतम्' इत्यायनेकथैव ततो समासासितो, जतो भणीयं। ब्रुवते। “देसेक्कदेसविरया समणाणं सावगा सुविहियाण । बृहद्वृत्ति, पत्र २४६ : 'विषमम्' अतिदुर्लक्षतयाऽतिगहनं विसदृशं वा जेसिं पारपासंडा सतिमंपिकलं न अग्धंति।।" शीलमेषां विषमशीलाः.....भिक्षयोऽप्यत्यन्तं विषमशीला एव, यतस्तेषु ६. सुखबोधा, पत्र १२७। केषाञ्चित्पञ्चयमनियमात्मक व्रतमिति दर्शनम्, अपरेषां तु कन्दमूलफला- ६. आप्टे संस्कृत इंग्लिश डिक्शनरी। शितैव इति, अन्येषामात्मतत्त्वपरिज्ञानमेवेति विसदृशशीलता। ७. आप्टे संस्कृत इंग्लिश डिक्शनरी। ४. उत्तराध्ययन चूर्णि, पृ० १३७ : कुप्रवचनभिक्षवोऽपि केचिदभ्युदयावेव ३. Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003626
Book TitleAgam 30 Mool 03 Uttaradhyayana Sutra Uttarajjhayanani Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2006
Total Pages770
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_uttaradhyayan
File Size25 MB
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