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________________ अध्ययन २५ : श्लोक ३५-४३ "तुमने मुझे यथार्थ ब्राह्मणत्व का बहुत ही अच्छा अर्थ समझाया है।" “तुम यज्ञों के यज्ञकर्ता हो, तुम वेदों को जानने वाले विद्वान् हो, तुम वेद के ज्योतिष आदि छहों अंगों को जानते हो, तुम धर्मों के पारगामी हो।" “तुम अपना और पराया उद्धार करने में समर्थ हो, इसलिए हे भिक्षु-श्रेष्ठ ! तुम हम पर भिक्षा लेने का अनुग्रह करो।" यज्ञीय ४०३ ३५. तुठे च विजयघोसे तुष्टश्च विजयघोषः इणमुदाहु कयंजली। इदमुदाह कृतांजलिः। माहणत्तं जहाभूयं माहनत्वं यथाभूतं सुटु मे उवदंसियं ।। सुष्टु मे उपदर्शितम्।। ३६.तुब्भे जइया जण्णाणं यूयं यष्टारो यज्ञानां तुब्भे वेयविऊ विऊ यूयं वेदविदो विदः। जोइसंगविऊ तुब्भे ज्योतिषांगविदो यूयं तुब्भे धम्माण पारगा।। यूयं धर्माणां पारगाः।। ३७.तुब्भे समत्था उद्धत्तुं यूयं समर्थाः उद्धर्तुम् परं अप्पाणमेव य। परमात्मानमेव च। तमणुग्गहं करेहम्हं तदनुग्रहं कुरुतास्माकं भिक्खेण भिक्खुउत्तमा ।। भैक्ष्येण भिक्षुत्तमाः!।। ३८.न कज्जं मज्झ भिक्खेण न कार्यं मम भैक्ष्येण खिप्पं निक्खमसू दिया !। क्षिप्रं निष्काम द्विज!। मा भमिहिसि भयाव? मा भ्रमी: भयावर्ते घोरे संसारसागरे।। घोरे संसारसागरे।। ३६.उवलेवो होइ भोगेसु उपलेपो भवति भोगेषु अभोगी नोवलिप्पई। अभोगी नोपलिप्यते। भोगी भमइ संसारे भोगी भ्रमति संसारे अभोगी विप्पमुच्चई।। अभोगी विप्रमुच्यते।। ४०.उल्लो सुक्को य दो छूढा आईः शुष्कश्च द्वौ क्षिप्तौ गोलया मट्टियामया। गोलको मृत्तिकामयौ। दो वि आवडिया कुड्डे द्वावप्यापतितौ कुड्ये जो उल्लो सो तत्थ लग्गई।। य आर्द्रः स तत्र लगति।। ४१. एवं लग्गति दुम्मेहा एवं लगन्ति दुर्मेधसः जे नरा कामलालसा। ये नराः कामलालसाः। विरत्ता उ न लग्गति विरक्तास्तु न लगन्ति जहा सुक्को उ गोलओ।। यथा शुष्कस्तु गोलकः।। ४२.एवं से विजयघोसे एवं स विजयघोषः जयघोसस्स अंतिए। जयघोषस्यान्तिके। अणगारस्स निक्खंतो अनगारस्य निष्क्रान्तः धम्म सोच्चा अणुत्तरं ।। धर्मं श्रुत्वाऽनुत्तरम्।। ४३.खवित्ता पुव्वकम्माई क्षपयित्वा पूर्वकर्माणि संजमेण तवेण य। संयमेन तपसा च। जयघोसविजयघोसा जयघोषविजयघोषौ सिद्धिं पत्ता अणुत्तरं ।। सिद्धिं प्राप्तावनुत्तराम् ।। "मुझे भिक्षा से कोई प्रयोजन नहीं है। हे द्विज ! तू तुरन्त ही निष्क्रमण कर मुनि-जीवन को स्वीकार कर। जिससे भय के आवर्तों से आकीर्ण इस घोर संसार-सागर में तुझे चक्कर लगाना न पड़े।" “भोगों में उपलेप होता है। अभोगी लिप्त नहीं होता। भोगी संसार में भ्रमण करता है। अभोगी उससे मुक्त हो जाता है।" "मिट्टी के दो गोले—एक गीला और एक सूखाफेंके गए। दोनों भींत पर गिरे। जो गीला था वह वहां चिपक गया।" "इसी प्रकार जो मनुष्य दुर्बुद्धि और कामभोगों में आसक्त होते हैं, वे विषयों से चिपट जाते हैं। जो विरक्त होते हैं, वे उनसे नहीं चिपटते, जैसे सूखा गोला।” इस प्रकार वह विजयघोष जयघोष अनगार के समीप अनुत्तर धर्म सुनकर प्रव्रजित हो गया। जयघोष और विजयघोष ने संयम और तप के द्वारा पूर्व संचित कर्मों को क्षीण कर अनुत्तर सिद्धि प्राप्त की। --ति बेमि। --इति ब्रवीमि। —ऐसा मैं कहता हूं। Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003626
Book TitleAgam 30 Mool 03 Uttaradhyayana Sutra Uttarajjhayanani Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2006
Total Pages770
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_uttaradhyayan
File Size25 MB
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