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________________ उत्तरज्झयणाणि १२८ अध्ययन ६ : श्लोक १७ टि० ३३-३७ आर्ष प्रयोग मानकर इसका अर्थ यति-मुनि किया है। लज्जा ३६. ज्ञातपुत्र (नायपुत्ते) -संयम। संयम के प्रति अनन्य उपयोगवान् होने के चूर्णि में नायपुत्त का अर्थ-ज्ञातकुल में प्रसूत सिद्धार्थ कारण यति 'लज्जू' कहलाता है।' सुखबोधा में इसका अर्थ क्षत्रिय के पुत्र है।' वृत्तियों में ज्ञात का अर्थ उदार क्षत्रिय, 'संयमी' है। प्रकरण वश सिद्धार्थ किया गया है। ज्ञातपुत्र अर्थात् सिद्धार्थ-पुत्र।' ३३. अप्रमत्त रहकर गृहस्थों से (अप्पमत्तो पमत्तेहिं) आचारांग में भगवान् के पिता को काश्यपगोत्री कहा गया है।" यहां अप्रमत्त और प्रमत्त-दोनों शब्द सापेक्ष हैं। अप्रमत्त भगवान् इक्ष्वाकु वंश में उत्पन्न हुए, यह भी माना जाता है। का प्रयोग अप्रमत्त-संयती (सप्तम गुणस्थानवर्ती) के अर्थ में नहीं भगवान् ऋषभ इक्ष्वाकुवंशी और काश्यपगोत्री थे। इसीलिए वे है, किन्तु प्रमादरहित जागरूक संयती के अर्थ में है। प्रमत्त शब्द आदि-काश्यप कहलाते हैं। भगवान् महावीर भी इक्ष्वाकुवंशी का प्रयोग गृहस्थ के अर्थ में किया गया है। और काश्यपगोत्री थे। 'ज्ञात' काश्यपगोत्रियों का कोई अवान्तर ३४. (श्लोक १६) भेद था या सिद्धार्थ का ही कोई दूसरा नाम था अथवा 'नाय' का प्रस्तुत श्लोक में मुनि की निरपेक्षता निर्दिष्ट है। उसके मूल अर्थ समझने में भ्रम हुआ है। हो सकता है उसका अर्थ हेतु ये हैं नाग हो और ज्ञात समझ लिया गया हो। १. एषणा समिति में उपयुक्त होना। वज्जी देश के शासक लिच्छवियों के नौ गण थे। ज्ञात या २. गांव, नगर आदि में अनियत चर्या करना। नाग उन्हीं का एक भेद था। देखें-दशवैकालिक ६।२० का ३. अप्रमत्त रहना। टिप्पण। ३५. अनुत्तर ज्ञानदर्शनधारी (अणुत्तरनाणदंसणघरे) ३७. वैशालिक (वेसालिए) प्रस्तुत श्लोक में इस पद से पूर्व 'अणूत्तरणाणी चूर्णिकार ने वैशालिक के कई अर्थ किए हैं-जिसके गुण अणुत्तरदंसी'-ये दो विशेषण आ चुके हैं। इसलिए यह प्रश्न विशाल हों, जो विशाल इक्ष्वाकुवंश में जन्मा हो, जिसकी माता अस्वाभाविक नहीं है कि पुनः इन्हीं दो विशेषणों की क्या वैशाली हो, जिसका कुल विशाल हो, उसे वैशालिक कहा जाता उपयोगिता है? क्या यह पुनरुक्त दोष नहीं है? है। इसके संस्कृत रूप वैशालीयः, वैशालियः, विशालिकः, विशालीयः समाधान में वृत्तिकार ने कहा है कि अनुत्तर ज्ञान और और वैशालिकः हैं। दर्शन लब्धिरूप में एक साथ रहते हैं, किन्तु इनका उपयोग जैनागों में स्थान-स्थान पर भगवान महावीर को 'बेसालिय' युगपत् एक साथ नहीं होता। ज्ञान और दर्शन की भिन्नकालता कहकर सम्बोधित किया गया है। इसका कारण यह है कि अनुत्तरज्ञानी और अनुत्तरदर्शी-इन दो पदों के पृथक कथन से __भगवान् का जन्म स्थान कुण्डग्राम था। वह वैशाली के पास था। स्पष्ट है। यह उपयोग की दृष्टि से प्रतिपादित है। लब्धिरूप में जन्म-स्थान के विषय में श्वेताम्बर और दिगम्बर एक मत नहीं इन दोनों की युगपत् अवस्थिति में भिन्नकालता स्वीकृत नहीं है। हैं परन्तु वैसालिय शब्द पर ध्यान जाते ही वैशाली की याद आ इसी व्यामोह को दूर करने के लिए यह विशेषण जाती है। 'अणुत्तरनाणदंसणधरे' पुनरुक्त नहीं है, एक विशेष अवस्था का भगवान् की माता त्रिशला वैशाली गणराज्य के अधिपति द्योतक है। चेटक की बहिन थी। इसके अनुसार चूर्णिकार का यह अर्थ--- वैशाली जिसकी माता हो-बहूत संगत लगता है। १. बृहद्वृत्ति, पत्र २६६ : लज्जा-संयमस्तुदुपयोगानन्यतया यतिरपि तथोक्तः, आर्षत्वाच्चैवं निर्देशः। २. सुखबोथा, पत्र ११५। ३. बृहद्वृत्ति, पत्र २६६ : पमत्तेहि ति प्रमत्तेभ्यो गृहस्थेभ्यः, ते हि विषयादि प्रमादसेवनात् प्रमत्ता उच्यन्ते। ४. बृहवृत्ति, पत्र २७०। ५. उत्तराध्ययन चूर्णि, पृ० १५६ : णातकुलप्पभू (स) सिद्धत्थखत्तियपुत्ते। ६. (क) वृहद्वृत्ति, पत्र २७० : ज्ञातः--उदारक्षत्रियः स चेह प्रस्तावात् सिन्द्रार्थः तस्य पुत्रो ज्ञातपुत्रः-वर्तमानतीर्थाधिपतिर्महावीर इति यावत्। (ख) सुखबोधा, पत्र ११५ । ७. आयारचूला १५ ॥१७ : समणस्स णं भगवओ महावीरस्स पिआ कासवगोत्तेणं। ८. अभिधान चिन्तामणि, १३५। ६. उत्तराध्ययन चूर्णि, पृ० १५६, १५७ : 'वेसालीए' त्ति, गुणा अस्य विशाला इति वैशालीयः, विशाल शासन वा वीशाले वा इक्ष्वाकुवंशे भवा वैशालिया, “वैशाली जननी यस्य, विशाल कुलमेव च। विशाल प्रवचनं वा, तेन वैशालिको जिनः ।।" Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003626
Book TitleAgam 30 Mool 03 Uttaradhyayana Sutra Uttarajjhayanani Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2006
Total Pages770
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_uttaradhyayan
File Size25 MB
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