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________________ आमुख इस अध्ययन का प्रतिपादन 'समुद्दपाल'—'समुद्रपाल' के व्यापारी दूर-दूर तक व्यापार के लिए जाते थे। सामुद्रिक माध्यम से हुआ है, इलिए इसका नाम 'समुद्दपालीय'- व्यापार उन्नत अवस्था में था। व्यापारियों के निजी यान-पात्र 'समुद्रपालीय' रखा गया है। होते थे और वे एक स्थान से दूसरे स्थान पर माल लेकर चम्पा नाम की नगरी थी। वहां पालित नाम का सार्थवाह आते-जाते थे। उस समय अनेक वस्तुओं का भारत से निर्यात रहता था। वह श्रमणोपासक था। निर्ग्रन्थ प्रवचन में उसे श्रद्धा होता था। उनमें सुपारी, स्वर्ण आदि-आदि मुख्य थे। यह थी। दूर-दूर तक उसका व्यापार फैला हुआ था। एक बार वह विशेष उल्लेखनीय है कि उस काल में भारत के पास प्रचुर सामुद्रिक यात्रा के लिए यानपात्र पर आरूढ़ हो घर से सोना था। वह उसका दूसरे देशों को निर्यात करता था। निकला। वह अपने साथ गणिम-सुपारी आदि तथा धरिम--- इस अध्ययन में 'ववहार' (श्लोक ३)—'व्यवहार' और स्वर्ण आदि ले चला। जाते-जाते समुद्र के तट पर पिहुण्ड नगर 'वज्झमंडलसोभाग' (श्लोक ८)—'वध्य-मंडन-शोभाक'—ये दो में रुका। अपना माल बेचने के लिए वह वहां कई दिनों तक शब्द ध्यान देने योग्य हैं। आगम-काल में 'व्यवहार' शब्द रहा। नगरवासियों से उसका परिचय बढ़ा और एक सेट ने क्रय-विक्रय का द्योतक था। आयात और निर्यात इसी के उसके साथ अपनी पुत्री का विवाह कर दिया। अन्तर्गत थे।' कुछ समय वहां रह कर वह स्वदेश को चला। उसकी 'वध्य-मंडन-शोभाक'—यह शब्द उस समय के नवोढ़ा गर्भवती हुई। समुद्र-यात्रा के बीच उसने एक सुन्दर दण्ड-विधान की ओर संकेत करता है। उस समय चोरी करने और लक्षणोपेत पुत्र को जन्म दिया। उसका नाम 'समुद्रपाल' वाले को कठोर दण्ड दिया जाता था। जिसे वध की सजा दी रखा गया। वैभव से उसका लालन-पालन हुआ। वह ७२ जाती, उसे कनेर के लाल फलों की माला पहनाई जाती। कलाओं में प्रवीण हुआ। जब वह युवा बना तक ६४ कलाओं उसको लाल कपड़े पहनाए जाते। शरीर पर लाल चन्दन का में पारंगत 'रूपिणी' नामक कन्या के साथ उसका पाणिग्रहण लेप किया जाता। सारे नगर में उसके कुकृत्यों की जानकारी हुआ। वह उसके साथ देव तुल्य भोगों का उपभोग करता हुआ दी जाती और उसे नगर के राज-मार्ग से वध-भूमि की ओर आनन्द से रहने लगा। एक बार वह प्रासाद के गवाक्ष में बैठा ले जाया जाता था। हुआ नगर की शोभा देख रहा था। उसने देखा कि राजपुरुष इस अध्ययन में तात्कालिक राज्य-व्यवस्था का उल्लेख एक व्यक्ति को वध-भूमि की ओर ले जा रहे हैं। वह व्यक्ति भी हुआ है। ग्रन्थकार कहते हैं- "मुनि उचित काल में एक लाल-वस्त्र पहने हुए था। उसके गले में लाल कनेर की मालाएं स्थान से दूसरे स्थान में जाए।" यह कथन साभिप्राय हुआ है। थीं। उसे यह समझते देर न लगी कि इसका वध किया उस समय भारत अनेक इकाइयों में बंटा हुआ था। छोटे-छोटे जाएगा। यह सब देख कुमार का मन संवेग से भर गया। राष्ट्र होते थे। आपसी कलह सीमा पार कर चुका था। 'अच्छे कमों का फल अच्छा होता है और बुरे कर्मों का फल इसीलिए मुनि को गमनागमन में पूर्ण सावधान रहने के लिए बुरा'—इस चिन्तन से उसका मार्ग स्पष्ट हो गया। माता-पिता कहा है (श्लोक १४)। मौलिक दृष्टि से इस अध्ययन में 'चम्पा' की आज्ञा ले वह दीक्षत हुआ। उसने साधना की ओर कर्मों को (श्लोक १) और 'पिहुण्ड' (श्लोक ३) नगरों का उल्लेख हुआ नष्ट कर सिद्ध, बुद्ध और मुक्त हुआ। है। चौबीस श्लोकों का यह छोटा-सा अध्ययन बहुत ही आत्मानुशासन के उपायों के साथ-साथ इस अध्ययन में महत्वपूर्ण है। समुद्र-यात्रा का उल्लेख महत्पूर्ण है। उस काल में भारत के १. सूयगडो, १११।५। २. वही, १६, वृत्ति, पत्र १५०॥ Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003626
Book TitleAgam 30 Mool 03 Uttaradhyayana Sutra Uttarajjhayanani Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2006
Total Pages770
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_uttaradhyayan
File Size25 MB
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