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________________ अध्ययन ३६ : श्लोक २६१ २६८ जीवाजीवविभक्ति ६२९ २६१. बालमरणाणि बहुसो बालमरणानि बहुशः अकाममरणाणि चेव य बहूणि। अकाममरणानि चैव च बहूनि। मरिहिंति ते वराया मरिष्यन्ति ते वराकाः जिणवयणं जे न जाणंति।। जिनवचनं ये न जानन्ति।। जो प्राणी जिनवचनों से परिचित नहीं हैं, वे बेचारे अनेक बार बाल-मरण तथा अकाम-मरण करते रहेंगे। २६२. बहुआगमविण्णाणा समहिउप्पायगा य गुणगाही। एएण कारणेणं अरिहा आलोयणं सोउं ।। बहागमविज्ञानाः जो अनेक शास्त्रों के विज्ञाता, आलोचना करने वाले समाध्युत्पादकाश्च गुणग्राहिणः।। के मन में समाधि उत्पन्न करने वाले और गुणग्राही एतेन कारणेन होते हैं, वे अपने इन्हीं गुणों के कारण आलोचना अर्हा आलोचनां श्रोतुम्।। सुनने के अधिकारी होते हैं। २६३. कंदप्पकोक्कुइयाई कन्दर्पकौत्कुच्ये जो कामकथा करता है, दूसरों को हंसाने की चेष्टा तह सीलसहावहासविगहाहिं। तथा शीलस्वभावहास्यविकथाभिः। करता है तथा शील-आचरण, स्वभाव, हास्य और विम्हावेंतो य परं विस्मापयन् च परं विकथाओं के द्वारा दूसरों को विस्मित करता है, वह कंदप्पं भावणं कुणइ।। कान्दी भावनां कुरुते।। कांदी भावना का आचरण करता है। २६४. मंताजोगं काउं भूईकम्मं च जे पउंजंति।। सायरसइड्डिहेउं अभिओगं भावणं कुणइ।। मंत्रयोगं कृत्वा भूतिकर्म च यः प्रयुङ्क्ते। सातरसर्चिहेतोः आभियोगी भावनां कुरुते।। जो सुख, रस और समृद्धि के लिए मंत्र, योग और भूति-कर्म का प्रयोग करता है, वह आभियोगी भावना का आचरण करता है। २६५. नाणस्स केवलीणं ज्ञानस्य केवलिना धम्मायरियस्स संघसाहूणं धर्माचार्यस्य सब्यसाधूनाम्। माई अवण्णवाई मायी अवर्णवादी किब्बिसियं भावणं कुणइ।। किल्बिषिकी भावनां कुरुते।। जो ज्ञान, केबल-ज्ञानी, धर्माचार्य, संघ तथा साधुओं की निन्दा करता है, वह मायावी पुरुष किल्बिषिकी भावना का आचरण करता है। २६६.अणुबद्धरोसपसरो अनुबद्धरोषप्रसरः जो क्रोध को सतत बढ़ावा देता है और निमित्त तह य निमित्तंमि होइ पडिसेवि। तथा च निमित्ते भवति प्रतिसेवी। बताता है, वह अपनी इन प्रवृत्तियों के कारण एएहि कारणेहि एताभ्यां कारणाभ्यां आसुरी भावना का आचरण करता है। आसुरियं भावणं कुणइ।। आसुरिकी भावनां कुरुते।। २६७.सत्थग्गहणं विसभक्खणं च । शस्त्रग्रहणं विषभक्षणं च जलणं च जलप्पवेसो य। ज्वलनं च जलप्रवेशश्च। अणायारभंडसेवा अनाचारभाण्डसेवा जम्मणमरणाणि बंधंति ।। जन्ममरणानि बध्नन्ति ।। जो शस्त्र के द्वारा, विष-भक्षण के द्वारा अग्नि में प्रविष्ट होकर या पानी में कूद कर आत्म-हत्या करता है और जो मर्यादा से अधिक उपकरण रखता है, वह जन्म-मरण की परम्परा को पुष्ट करता है-मोही भावना का आचरण करता है। २६८. इइ पाउकरे बुद्धे नायए परिनिव्वुए। छत्तीसं उत्तरज्झाए भवसिद्धीयसंमए।। इति प्रादुरकरोद् बुद्धः ज्ञातकः परिनिर्वृतः। षट्त्रिंशदुत्तराध्यायान् भव्यसिद्धिकसम्मतान् ।। इस प्रकार भव्य जीवों द्वारा सम्मत छत्तीस उत्तराध्ययनों का तत्त्ववेत्ता, ज्ञातवंशीय उपशान्त भगवान् महावीर ने प्रज्ञापन किया है। –त्ति बेमि। -इति ब्रवीमि। --ऐसा मैं कहता हूं। Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003626
Book TitleAgam 30 Mool 03 Uttaradhyayana Sutra Uttarajjhayanani Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2006
Total Pages770
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_uttaradhyayan
File Size25 MB
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