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________________ टिप्पण अध्ययन ३६ : जीवाजीवविभक्ति १. जीव और अजीव का विभाग (जीवाजीविभत्ति) जीव और अजीव के अनेक प्रकार हैं। आगम साहित्य में उनका विशद विवेचन प्राप्त है। दशवैकालिक सूत्र में कहा गया है जो जीवे विन याणाइ, अजीवे विन याणई। जीवाजीवे अयाणतो, कहं सो नाहिइ संजमं ॥ जो जीव और अजीव को नहीं जानता- उनके भेद-प्रभेद और लक्षणों को नहीं जानता- वह संयम को नहीं जानता। संयम को जानना मोक्ष तक पहुंचने का प्रथम सोपान है । और वह अवबोध जीव- अजीव के संज्ञान से ही होता है। जीव और अजीव के आधार पर संयम के सतरह प्रकार प्रतिपादित हैं । २. यह लोक जीव और अजीवमय है (जीवा चैव अजीवा य) 1 जैन आगमों में 'लोक' की परिभाषा कई प्रकार से मिलती है— धर्मास्तिकाय लोक है। लोक पञ्चास्तिकायमय है जो आकाश षड्द्रव्यात्मक है, वह लोक है। यहां जीव और अजीव को लोक कहा गया है। इन सब में कोई विरोध नहीं है । केवल अपेक्षा भेद से इनका प्रतिपादन हुआ है। धर्म द्रव्य लोक-परिमित है इसलिए उसे लोक कहा गया है। काल समूचे लोक में व्याप्त नहीं अथवा वह वास्तविक द्रव्य नहीं, इसलिए लोक को पञ्चास्तिकायमय बताया गया है। द्रव्य छह हैं। उनमें आकाश सब का आधार है। इसलिए उसके आश्रय पर ही दो विभाग किए गए हैं-- (१) लोकाकाश और (२) अलोकाकाश। अलोकाकाश में आकाश के सिवाय कुछ भी नहीं है। लोकाकाश में सभी द्रव्य हैं। व्यावहारिक काल सिर्फ मनुष्य लोक में है किन्तु वह है लोक में ही, इसलिए 'अंशस्यापि क्वचित् पूर्णत्वेन व्यपदेशः " के अनुसार लोक की षडूद्रव्यात्मक मानना ही युक्ति-सिद्ध है। कहा भी है- 'द्रव्याणि षट् प्रतीतानि, द्रव्यलोकः स उच्यते।' संक्षिप्त दृष्टि के अनुसार धर्मजहां पदार्थ को चेतन और अचेतन उभयरूप माना गया है। अधर्मवहां लोक का भी चेतनाचेतनात्मक स्वरूप बताया गया है आकाश३. जहां अजीव का देश है—आकाश ही है काल(अजीवदेसमागासे) 1 अजीव के चार भेद हैं- (१) धर्मास्तिकाय, (२) अधर्मास्तिकाय (३) आकाशास्तिकाय और (४) पुद्गलास्तिकाय । अलोक में जीव तो होते ही नहीं, अजीव में भी केवल आकाश १. दसवेआलियं, ४ / श्लोक १२ । Jain Education International ही होता है। इसलिए अलोक को आकाशमय कहा गया है। इसी आशय से बृहद्वृत्ति (पत्र ६७१) में कहा है धर्मादीनां वृत्तिर्द्रव्याणां भवति यत्र तत् क्षेत्रम् । तैर्द्रव्यैः सह लोकस्तद् विपरीतं ह्यलोकाख्यम् ।। जहां धर्मास्तिकाय आदि छहों द्रव्य होते हैं वह लोक है। जो इससे विपरीत केवल आकाशमय है, वह अलोक है । वह आकाश भी अखंड नहीं है। आकाश के दो विभाग हैं लोकाकाश और अलोकाकाश। इसलिए अलोकाकाश को अजीव का एक देश कहा गया है। ४. (श्लोक ३) भगवान् महावीर का दर्शन अनेकान्त दर्शन है। अनेकान्त का अर्थ है 'वस्तु में अनन्त स्वभावों का होना।' सारे स्वभाव अपनी-अपनी दृष्टि से एक दूसरे से भिन्न हैं। जितने स्वभाव हैं उतने ही कथन प्रकार हैं। अतः उनका एक साथ कथन असंभव है। भगवान् ने प्रमुख रूप से पदार्थ - ज्ञान की चार दृष्टियां दीं – (१) द्रव्य, (२) क्षेत्र, (३) काल और (४) भाव । (१) द्रव्य-दृष्टि-इससे द्रव्य का परिमाण जाना जाता है । (२) क्षेत्र दृष्टि इसरो वस्तु कहां पाई जाती है, यह जाना जाता है। (३) काल- दृष्टि इससे द्रव्य की काल मर्यादा जानी जाती है। द्रव्य (१) भाव - दृष्टि — इससे द्रव्य के पर्याय—रूपपरिवर्तनजाने जाते है। चार दृष्टियों से द्रव्य विचारक्षेत्रदृष्टि लोक-व्यापी लोक-व्यापी द्रव्य दृष्टि एक एक एक लोक- अलोक-व्यापी अनन्त समयक्षेत्र - व्यापी पुद्गल- अनन्त लोक-व्यापी जीव- अनन्त लोक-व्यापी ५. ( श्लोक ४) २. समवाओ १७।२। काल- भावदृष्टि दृष्टि अनादि-अनन्त अरूपी अनादि-अनन्त अरूपी अनादि-अनन्त अरूपी अनादि-अनन्त अरूपी अनादि-अनन्त रूपी अनादि-अनन्त अरूपी रूपी अथवा मूर्त्त द्रव्य इन्द्रियगम्य हो सकता है। अरूपी For Private & Personal Use Only - www.jainelibrary.org
SR No.003626
Book TitleAgam 30 Mool 03 Uttaradhyayana Sutra Uttarajjhayanani Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2006
Total Pages770
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_uttaradhyayan
File Size25 MB
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