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________________ जीवाजीवविभक्ति ६३१ 1 अथवा अमूर्त्त द्रव्य इन्द्रिय का विषय नहीं है । जो इन्द्रिय का विषय नहीं है वह वास्तव में हेतु अथवा अनुमान का विषय भी नहीं बनता । अवधि और मनः पर्यव—दोनों प्रत्यक्ष ज्ञान हैं उनके द्वारा भी अरूपी द्रव्य को नहीं जाना जा सकता। इस दृष्टि से अरूपी द्रव्य और सर्वज्ञता — दोनों में गहरा सम्बन्ध 33815 ६. ( श्लोक ५ ) 1 पदार्थ दो रूप से ग्राह्य होता है खंड-रूप और अखंड रूप से । वस्तु के सबसे छोटे भाग को, जिसके फिर दो टुकड़े न हो सकें, परमाणु कहते हैं । परमाणु सूक्ष्म और किसी एक रस, गंध, वर्ण तथा दो स्पर्शो सहित होता है। वे परमाणु जब एकत्रित हो जाते हैं तब उन्हें स्कंध कहा जाता है। दो परमाणुओं से बनने वाले स्कंध को द्वि-प्रदेशी स्कंध कहते हैं। इसी प्रकार स्कंध के त्रि-प्रदेशी, दश-प्रदेशी, संख्येय-प्रदेशी, असंख्येय-प्रदेशी, अनन्त प्रदेशी आदि अनंत भेद होते हैं। स्कंध के बुद्धि-कल्पित अंश को देश कहते हैं। वह जब तक स्कंध से संलग्न रहता है तब तक देश कहलाता है। अलग हो जाने के बाद वह स्वयं स्कंध बन जाता है। स्कंध के उस छोटे से छोटे भाग को प्रदेश कहते हैं, जिसके फिर दो भाग न हो सकें। प्रदेश भी तब तक ही प्रदेश कहलाता है जब तक वह स्कंध के साथ जुड़ा रहता है। अलग हो जाने के बाद वह परमाणु कहलाता है। धर्मास्तिकाय आदि चार अस्तिकाओं के स्कंध, देश तथा प्रदेश- ये तीन ही भेद होते हैं। केवल पुद्गलास्तिकाय के ही स्कंध, देश, प्रदेश तथा परमाणु-ये चार भेद होते हैं। ये रूपी हैं। धर्मास्तिकाय आदि की स्वरूप चर्चा उत्तराध्ययन के अठाईसवें अध्ययन के आठवें और नौवें श्लोक की टिप्पणियों में की गई है । ७. अध्वासमय (काल) (अद्धासमए) स्थानांग में काल चार प्रकार का बताया गया है। वहां एक नाम 'अद्धा काल' भी आया है। वृत्तिकार ने बताया है कि काल शब्द, रंग, प्रमाण, काल आदि कई अर्थों में प्रयुक्त होता है। समय-वाची काल शब्द को रंग और प्रमाण-वाची काल शब्द से पृथक करने के लिए उससे पीछे 'अद्धा' विशेषण जोड़ा गया है। यहां उसी अर्थ में अद्धा समय है। यह सूर्य की गति से सम्बद्ध रहता है। दिन-रात आदि का काल-मान केवल मनुष्य-क्षेत्र में ही होता है। उससे बाहर ये भेद नहीं होते। अतः अद्धा -काल केवल मनुष्य-क्षेत्र (अढ़ाई १. स्थानांग ४।१३४, वृत्ति पत्र १६० कालशब्दो हि वर्णप्रमाणकालादिष्वपि वर्त्तते, ततोऽद्वाशब्देन विशिष्यत इति, अयं च सूर्यक्रियाविशिष्टो मनुष्यक्षेत्रान्तर्वर्ती समयादिरूपो ऽवसेयः । २. वही, ४।१३४, वृत्ति पत्र १६० । ३. वृहदवृत्ति, पत्र ६७४ : अत्र चाविशेषोक्तावपि परमाणुनामेकप्रदेश Jain Education International अध्ययन ३६ : श्लोक ५-१४ टि० ६-१० द्वीप) में ही होता है। ८. समयक्षेत्र (मनुष्य लोक) में (समयखेत्तिए) समयक्षेत्र वह क्षेत्र है, जहां समय, आवलिका, पक्ष, मास, ऋतु, अयन आदि का काल विभाग परिज्ञात होता है। समयक्षेत्र से बाहर उपर्युक्त काल विभाग नहीं होता । समयक्षेत्र का दूसरा नाम मनुष्यक्षेत्र भी है। क्योंकि जन्मतः मनुष्य केवल समयक्षेत्र में ही पाये जाते हैं। क्षेत्रफल की दृष्टि से इनकी व्याख्या यह हैजम्बूद्वीप, पातकीखंड तथा अर्थपुष्कर इन अढाई द्वीपों की संज्ञा मनुष्यक्षेत्र या समयक्षेत्र है। सूर्य और चन्द्रमा मेरु पर्वत की प्रदक्षिणा करते हुए घूमते हैं, अतः उनकी गति समयक्षेत्र तक ही सीमित रह जाती है। उससे आगे यद्यपि असंख्य सूर्य और चन्द्रमा हैं पर वे अपने स्थान पर अवस्थित हैं अतः उनसे काल का विभाग नहीं होता । ९. (श्लोक ११) परमाणु आकाश के एक प्रदेश में ही अवगाहन करते हैं। इसलिए 'भजना' अथवा विकल्प केवल स्कंध का ही होता है। स्कंध की परिणति नाना प्रकार की होती है। कुछ स्कंध आकाश के एक प्रदेश में भी अवगाहन कर लेते हैं, कुछ आकाश के संख्येय प्रदेशों में अवगाहन करते हैं और कुछ स्कंध पूर्ण लोकाकाश में फैल जाते हैं। इसलिए क्षेत्रावगाहन की दृष्टि से इसके अनेक विकल्प बन जाते हैं। १०. ( श्लोक १३-१४) संख्या आठ प्रकार की बतलाई हैं। उनमें एक भेद है गणना । गणना के मुख्य तीन भेद हैं— संख्य, असंख्य और अनन्त । इनके अवान्तर भेद बीस होते हैं। यथा संख्य के तीन भेद हैं— (१) जघन्य, (२) मध्यम और (३) उत्कृष्ट । असंख्य के नौ भेद हैं- ( १ ) जघन्य परीत असंख्येय, (२) मध्यम परीत असंख्येय, (३) उत्कृष्ट परीत असंख्येय, (४) जघन्य युक्त असंख्येय, (५) मध्यम युक्त असंख्येय, (६) उत्कृष्ट युक्त असंख्येय, (७) जघन्य असंख्येय - असंख्येय, (८) मध्यम असंख्येय- असंख्येय एवं ( ६ ) उत्कृष्ट असंख्येयअसंख्येय । अनन्त के आठ भेद हैं- ( १ ) जघन्य परीत अनन्त, (२) मध्यम परीत अनन्त, (३) उत्कृष्ट पीरत अनन्त, (४) जघन्य युक्त अनन्त, (५) मध्यम युक्त अनन्त, (६) उत्कृष्ट युक्त अनन्त, (७) जघन्य अनन्त - अनन्त तथा मध्यम अनन्त-अनन्त एवावस्थानात् स्कन्धविषयैव भजना द्रष्टव्या ते हि विचित्रत्वात् परिणतेर्बहुतरप्रदेशोपचिता अपि केचिदेकप्रदेशे तिष्ठन्ति यदुक्तम्'एगेणवि से पुण्णे दोहिवि पुणे संयंपि माइज्जे' त्यादि, अन्ये तु संख्येयेषु च प्रदेशेषु यावत् सकललोकेऽपि तथाविधाचितमहास्कन्धवद् भवेयुरिति भजनीया उच्यन्ते । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003626
Book TitleAgam 30 Mool 03 Uttaradhyayana Sutra Uttarajjhayanani Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2006
Total Pages770
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_uttaradhyayan
File Size25 MB
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