SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 130
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ असंस्कृत ८९ देखकर उसने सोचा, यह कोई राजघराने का व्यक्ति है। बेचारा व्यर्थ ही मारा जाएगा। उसके मन में करुणा जागी। वह बोलीभद्र ! यहां से भाग जाओ, अन्यथा मारे जाओगे। मूलदेव वहां से भाग गया। उस लड़की ने चिल्लाकर कहा-अरे, दौड़ो, दौड़ो, वह भाग गया है। मंडिक चोर ने यह सुना । वह नंगी तलवार हाथ में ले पीछे भागा। पर वह नहीं मिला। मूलदेव जाते-जाते एक शिवमंदिर में जा छुपा । चोर ने शिवलिंग को मनुष्य समझकर उस पर प्रहार कर भूमिघर पर आ गया। प्रभातकाल में वह राजपथ पर गया और कपड़े बुनने के काम में लग गया। राजपुरुषों ने उसे पकड़ कर राजा मूलदेव के समक्ष उपस्थित किया। राजा ने उसको ससम्मान आसन दिया और कहा- तुम अपनी बहिन का विवाह मेरे साथ कर दो। विवाह संपन्न हुआ। राजा ने उसको प्रचुर भोग सामग्री दी। कुछ दिन बीते। एक दिन राजा ने उससे कहा- मुझे अभी कुछ चाहिए। चोर ने अपने भंडार से धन ला दिया। फिर कुछ धन मंगाया। इस प्रकार चोर का सारा धन मंगा लिया। राजा ने उसकी बहिन से पूछा—इसके पास और कितना धन है ? बहिन बोली–अब रिक्त हो गया है। तब राजा ने इस मंडिक चोर को शूली पर लटका दिया। राजा को जब तक उस चोर से धन मिलता रहा तब तक वह उसका भरण-पोषण करता रहा। जब धन मिलना बंद हो गया तब उसको मार डाला। बृहद्वृत्ति (पत्र २१८-२२२) में यह कथा विस्तार से प्राप्त है । १७. विचार-विमर्श पूर्वक (परिन्नाय) परिज्ञा का अर्थ है – सभी प्रकार से जानकर । परिज्ञा के दो प्रकार हैं-ज्ञ-परिज्ञा और प्रत्याख्यान- परिज्ञा । व्यक्ति ज्ञ परिज्ञा से जान लेता है कि अब मैं पूर्व की भांति ज्ञान, दर्शन और चारित्र के गुणों की विशिष्ट प्राप्ति करने में असमर्थ हूं, निर्जरा भी कम हो रही है क्योंकि शरीर क्षीण है। इस बुढ़ापे से जीर्ण और रोगों से आक्रान्त है, अतः अब धर्माराधना भी नहीं हो रही है। यह जानकर वह संलेखना करता है और अन्त में यावज्जीवन अनशन कर शरीर को त्याग देता है। १८. इस शरीर का ध्वंस (मलावषंसी) यहां 'मल' का अर्थ है शरीर । यह मलों का आश्रय होता है अतः इसका लाक्षणिक नाम 'मल' है। चूर्णिकार ने 'मल' का अर्थ 'कर्म" और बृहद्वृत्तिकार ने इसका मूल अर्थ कर्म और वैकल्पिक अर्थ शरीर दिया है। शरीर अर्थ ही यहां प्रासंगिक है। 9. उत्तराध्ययन चूर्णि, पृष्ठ ११७, ११८: मलं अष्टप्रकारं । २. बृहद्वृत्ति, पत्र २१८ मलः अष्टप्रकारं कर्म्म... यद्वा मलाश्रयत्वान्मलः औदारिकशरीरं... I ३. सूयगडो, २२ ६७, ७३। ४. उत्तराध्ययन चूर्णि, पृ. १२२; बृहद्वृत्ति पत्र २२३ : सुखबोधा पत्र ६६ । Jain Education International अध्ययन ४ : श्लोक ७-८ टि० १७-२१ १९. (श्लोक ७) प्रस्तुत श्लोक में अनशन की सीमा का निरूपण किया गया है। प्रश्न होता है कि मुनि (या अन्य कोई ) अनशन कब करे ? सूत्रकार ने इसके समाधान में आयु सीमा का कोई निर्धारण नहीं किया है और न ही रोग या नीरोग अवस्था का निर्देश दिया है। यहां एक भावात्मक सीमा का निर्देश है। जब तक ज्ञान, दर्शन और चारित्र की नई-नई उपलब्धियां होती रहें, तब तक शरीर को धारण करना चाहिए। जब अपने शरीर से कोई विशिष्ट उपलब्धि न हो, उस अवस्था में संलेखना की आराधना कर अन्त में अनशन कर लेना चाहिए। सूत्रकृतांग में आबाधा ( बुढ़ापा या रोग) के होने या न होने—दोनों अवस्थाओं में अनशन की विधि का निर्देश मिलता है । यह निर्देश साधु और श्रमणोपासक दोनों के लिए है। २०. शिक्षित.... अश्व (आसे जहा सिक्खिय.....) अश्व दो प्रकार के होते हैं—प्रशिक्षित और अप्रशिक्षित । प्रशिक्षित अश्व अपने शिक्षक के अनुशासन में रहता है। वह उच्छृंखल नहीं होता। अप्रशिक्षित अश्व अपने सवार (अश्ववार) का अनुशासन नहीं मानता। वह उच्छृंखल होता है । व्याख्याकारों ने यहां एक कथानक प्रस्तुत किया है— एक राजा ने दो कुलपुत्रों को दो अश्व दिए और कहाइनको प्रशिक्षित करना है और समुचित भरण-पोषण भी करना है। एक कुलपुत्र अपने अश्व को धावन, प्लावन, वल्गन आदि अनेक कलाओं में पारंगत करता है और उसका उचित भरण-पोषण भी करता है। दूसरा कुलपुत्र सोचता है— राजकुल में इस अश्व के लिए इतना कुछ मिलता है, पर इसे क्यों खिलाया जाए ? यह सोचकर वह उस अश्व को भूसा आदि खिलाता है और अपने अरहट पर जोतकर उससे काम कराता है । वह उसे प्रशिक्षित नहीं करता । एक बार किसी शत्रु ने आक्रमण कर दिया। राजा ने उन दोनों कुलपुत्रों को अपने- अपने घोड़ों पर संग्राम में जाने का आदेश दिया। जो अश्व पूर्व प्रशिक्षित था, वह अपने सवार का अनुशासन मानता हुआ संग्राम का पार पा गया। जो अप्रशिक्षित अश्व था, वह शत्रुओं के हाथ आ गया और कुलपुत्र बंदी बना लिया गया।* २१. पूर्व जीवन में (पुव्वाइं वासाइं) पूर्व परिमान आयुष्यवालों के लिए 'पूर्व' और वर्ष परिमाण आयुष्यवालों के लिए 'वर्ष' का उल्लेख हुआ है—ऐसा चूर्णिकार और वृत्तिकार का अभिमत है । परन्तु विषय की दृष्टि से ५. (क) उत्तराध्ययन चूर्णि, पृष्ठ १२२ : पूरयंतीति पूर्वं वर्षतीति वर्षं, ताणि पुव्याणि वासाणी, का भावना ? पुव्वाउसो जया मणुया तदा पुव्वाणि, जदा वरिसायुसो तया वरिसाणि । (ख) बृहद्वृत्ति, पत्र २२४ : पूर्वाणि वर्षाणीति च एतावदायुषामेव चारित्रपरिणतिरिति । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003626
Book TitleAgam 30 Mool 03 Uttaradhyayana Sutra Uttarajjhayanani Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2006
Total Pages770
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_uttaradhyayan
File Size25 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy