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उरवीय
सुव्रत का अर्थ सत्पुरुषोषित, अविषाद आदि गुणों से युक्तकिया है।' यहां व्रत का प्रयोग आगमोक्त श्रावक के बारह व्रतों के अर्थ में नहीं है। उन व्रतों को धारण करने वाला 'देवगति' (वैमानिक) में ही उत्पन्न होता है। यहां सुव्रती की उत्पत्ति मनुष्ययोनि में बतलाई गई है। इसलिए यहां व्रत का अर्थप्रकृतिभद्रता आदि का अनुशीलन होना चाहिए। स्थानांग में बताया है कि मनुष्य-गति का बन्ध चार कारणों से होता है
१. प्रकृति - भद्रता, २. प्रकृति- विनीतता, ३. सानुक्रोशता,
४. अमत्सरता
जीव जैसा कर्म - बन्ध करते हैं, वैसी गति उन्हें प्राप्त होती है। इसलिए उन्हें कर्म-सत्य कहा है। जीव जो कर्म करते हैं उसे भोगना ही पड़ता है, बिना भोगे उससे मुक्ति नहीं मिलती।" इसलिए जीवों को कर्म-सत्य कहा है। जिनके कर्म ( मानसिक, वाचिक और कायिक प्रवृत्तियां) सत्य (अविसंवादी) होते हैं, वे कर्म-सत्य कहलाते हैं। जिनके कर्म निश्चित रूप से फल देने वाले होते हैं, वे कर्म-सत्य कहलाते हैं। 'कम्मसच्चा हु पाणिणो' यह अर्थान्तरन्यास है ।
२९. विपुल शिक्षा (विठला सिक्खा)
शिक्षा दो प्रकार की होती है— ग्रहण अर्थात् जानना और आसेवन अर्थात् ज्ञात विषय का अभ्यास करना।" ज्ञान के बिना आसेवन सम्यक् नहीं होता और आसेवन के बिना ज्ञान सफल नहीं होता, इसलिए ज्ञान और आसेवन दोनों मिलकर ही शिक्षा को पूर्ण बनाते हैं। जिन व्यक्तियों की शिक्षा विपुल होती है— सम्यक्-दर्शन युक्त अणुव्रतों या महाव्रतों की आराधना से सम्पन्न होती है वे देवलोक में उत्पन्न होते हैं। ३०. शीलसंपन्न..... करनेवाले ( सीलवंता सवीसेसा)
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अध्ययन ७ : श्लोक २१, २४ टि० २६-३४
(२) असंयम का परिहार करने वाला, (३) सदा प्रसन्न रहने वाला । १०
शील का अर्थ है- सदाचार। जो उत्तरोत्तर गुणों को प्राप्त करते हैं, जो लाभोन्मुख होते हैं, वे सविशेष कहलाते हैं । ३१. अदीन - पराक्रमी (अद्दीणा)
चूर्णि में अदीन के तीन अर्थ प्राप्त हैं – (१) कष्टसहिष्णु, १. बृहद्वृत्ति, पत्र २८१ 'सुव्रताश्च' धृतसत्पुरुषव्रताः, ते हि प्रकृतिभद्रकत्वाद्यभ्यासानुभावत एव न विपद्यपि विषीदन्ति सदाचारं वा नावधीरयन्तीत्यादिगुणान्विताः ।
२. वही, पत्र २८१ : आगमविहितव्रतधारणं त्वमीषामसम्भवि, देवगतिहेतुतयैव तदभिधानात् ।
३. ठाणं, ४१६३० चउहिं ठाणेहिं जीवा मणुस्साउयत्ताए कम्मं पगरेंति, तंजहा - पगतिभद्दताए, पगतिविणीययाए, साणुक्कोसयाए, अमच्छरिताए । उत्तराध्ययन चूर्ण, पृ० १६५ : कम्माणि सच्चाणि जेसिं ते कम्मसच्चा, तस्य जारिसाणि से तावं विधिं गतिं लभति, तं सुभमसुभं वा ।
५. वही, पृ० १६५: अथवा कम्मसत्या हि, सच्चं कम्मं, कम्मं अवेदे नवेइत्ति, यदि हि कृतं कर्म्म न वेद्यते ततो न कर्म्म-सत्याः स्युरिति ।
६. बृहद्वृत्ति, पत्र २८१ : कर्म्मणा मनोवाक्कायक्रियालक्षणेन सत्याअविसंवादिनः कर्म्मसत्याः ।
७. बृहद्वृत्ति, पत्र २८१ : सत्यानि अवन्ध्यफलानि कर्माणि ज्ञानावरणादीनि येषां ते सत्यकर्माणः ।
८. सुखबोधा, पत्र १२२ 'शिक्षा' ग्रहणाऽऽसेवनात्मिका ।
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वृत्ति में इसके दो अर्थ प्राप्त हैं - ( १ ) जो इस चिन्ता से मुक्त होता है कि मुझे यहां से मर कर कहां जाना है, (२) जो परीषह और उपसर्गों के आने पर दीन नहीं होता ।" ३२. देवत्व को (देवयं)
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यह सोलहवें श्लोक के 'लाभो देवगई भवे' का निगमन है। वृत्तिकार ने यहां प्रश्न उपस्थित किया है कि यहां देवत्व के लाभ की बात क्यों कही गई ? वास्तव में मुक्ति-लाभ की बात कहनी चाहिए थी। इसका समाधान देते हुए वे कहते हैं- आगम त्रैकालिक होते हैं, किसी समय विशेष के नहीं होते। वर्तमान में विशिष्ट संहनन के अभाव में मुक्ति की प्राप्ति असंभव है, इसलिए यहां 'देवत्व' की बात कही गई है।" वृत्ति की इस व्याख्या से विषय का प्रसंगान्तर हो जाता है ।
३३. इस अति संक्षिप्त आयु में (सन्निरुद्धमि आउए)
इस काल में मनुष्य की सामान्य आयु सी वर्ष की मानी जाती है। इससे अधिक आयुष्य वाले मनुष्य बहुत ही कम होते हैं । यह अति संक्षिप्त आयुष्य है। यह इसका एक अर्थ है।
इसका दूसरा अर्थ है- आयुष्य दो प्रकार का होता हैसोपक्रम और निरुपक्रम । सोपक्रम आयुष्य में अनेक अवरोध आते हैं और प्राणी असमय में ही काल-कवलित हो जाता हैं। वह अपने आयुष्य कर्म के पुद्गलों को शीघ्र (संक्षेप में) भोग लेता है। ** ३४. योगक्षेम को (जोगक्खेम)
योग का अर्थ है— अप्राप्त की प्राप्ति और क्षेम का अर्थ है-- प्राप्त का संरक्षण। यहां 'योगक्षेम' का तात्पर्य है— अध्यात्म की उन अवस्थाओं को प्राप्त करना जो आज तक प्राप्त नहीं थीं और जो प्राप्त हैं उनका सम्यग् संरक्षण करना, परिपालन करना । *
प्रस्तुत श्लोक में प्रश्न किया गया है कि जब आयुष्य इतना अल्प है तो मनुष्य किन कारणों से अपने योगक्षेम को नहीं जानता ? अथवा जानता हुआ भी उसकी उपेक्षा करता है ?
६. बृहद्वृत्ति, पत्र २८२ : विपुला' निःशंकितत्वादिसम्यक्त्वाचाराणुव्रतमहाव्रतादिविषयत्वेन विस्तीर्णा ।
१०. उत्तराध्ययन चूर्ण, पृ० १६५ णो दीणो अद्दीणो इति अद्दीणो णाम जो परीसहोदर ण दीपो भवति, अथवा रोगिवत् अपत्थाहारं अकामः असंजमं वज्जतीति अदीनः, जे पुण हृष्यन्ति इव ते अद्दीणा ।
११. बृहद्वृत्ति पत्र २८२ अदीनाः कथं वयममुत्र भविष्याम इति वैक्लव्यरहिताः परिषहोपसर्गादिसम्भवे वा न दैन्यभाज इत्यदीनाः ।
१२. वही, पत्र २८२ : ननु तत्त्वतो मुक्तिगतिरेव लाभ:, तत् किमिह तत्परिहारतो देवगतिरुक्तेति ? उच्यते, सूत्रस्य त्रिकालविषयत्वात्, मुक्तेश्चेदानीं विशिष्टसंहननाभावतो ऽभावाद् देवगतेश्च 'छेवट्ठेण उ गम्मइ चत्तारि उ जाय आदिमा कप्पा' इति वचनाच्छेदपरिवर्तिसंहननिनामिदानींतनानामपि सम्भवादेवमुक्तमिति ।
१३. (क) उत्तराध्ययन चूर्ण, पृ० १६८ ।
(ख) बृहद्वृत्ति, पत्र २८३ ।
१४. बृहद्वृत्ति, पत्र २८३ : अलब्धस्य लाभो योगो, लब्धस्य च परिपालनं---: क्षमो ऽनयोः समाहारो योगक्षेमं कोऽर्थः ? अप्राप्तविशिष्टधर्मप्राप्तिः प्राप्तस्य च परिपालनम् ।
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