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________________ उत्तरज्झयणाणि ४६. जा किण्हाए टिई बलु उक्कोसा सा उ समयमब्भहिया जहन्नेणं नीलाए पलियमसंखं तु उचकोसा।। ५०. जा नीलाए ठिई खलु उक्कोसा सा उ समयमब्भहिया । जहन्नेणं काऊए पलियमसंखं च उक्कोसा ।। ५१. तेण परं वोच्छामि तेउलेसा जहा सुरगणाणं । भवणवइवाणमंतरजोइसवेमाणियाणं च ५२. पलिओवमं जहन्ना उक्कोसा सागरा उ दुम्हहिया । पलियमसंखेज्जेण होई भागेण तेऊए ।। ५३. दस वाससहस्साइं तेऊए ठिई जहन्निया होइ। दुष्णुदही पलिओवम असंखभागं च उक्कोसा ।। ५४. जा तेऊए ठिई खलु उक्कोसा सा उ समयमब्भहिया । जहन्नेणं पम्हाए दस उ मुहुत्तहियाइं च उक्कोसा ।। ५५. जा पम्हाए ठिई खलु उक्कोसा सा उ समयमब्महिया । जहन्नेणं सुक्काए तेत्तीसमुहुत्तममहिया ।। ५६. किण्हा नीला काऊ तिन्नि वि एयाओ अहम्मलेसाओ। एयाहि तिहि वि जीवो दुग्गइं उववज्जई बहुसो ।। ५७. तेऊ पम्हा सुक्का तिन्नि वि एयाओ धम्मलेसाओ। एयाहि तिहि वि जीवो सुग्गई उववज्जई बहुसो ।। ५८. लेसाहिं सव्वाहिं पढमे समयम्मि परिणयाहिं तु । न वि कस्सवि उदवाओ परे भवे अत्थि जीवस्स ।। Jain Education International ५८४ या कृष्णायाः स्थितिः खलु उत्कृष्टा सा तु समयाभ्यधिका । जघन्येन नीलायाः पल्यासङ्ख्यं तूत्कृष्टा ।। या नीलायाः स्थितिः खलु उत्कृष्टा सा तु समयाभ्यधिका । जघन्येन कापोतायाः पल्यासङ्ख्यं चोत्कृष्टा ।। ततः परं वक्ष्यामि तेजोलेश्यां यथा सुरगणानाम् । भवनपतिवाणव्यन्तर ज्योतिर्वैमानिकानां च ।। पल्योपमं जघन्या उत्कृष्टा सागरौ तु पल्यासख्येयेन भवति भागेन तैजस्याः ।। वशवर्षसहस्राणि द्वयधिकौ । कृष्णा नीला कापोता: तिनो ऽप्येता अधर्मलेश्याः । एताभिस्तिसृभिरपि जीवो दुर्गतिमुपपद्यते बहुशः । तैजसी पद्मा शुक्ला तिम्रो ऽप्येता धर्मलेश्याः । एताभिस्तिभिरपि जीवः सुगतिमुपपद्यते बहुशः ।। अध्ययन ३४ : श्लोक ४६-५८ कृष्ण लेश्या की जो उत्कृष्ट स्थिति है, उसमें एक समय मिलाने पर वह नील लेश्या की जघन्य स्थिति होती है और उसकी उत्कृष्ट स्थिति पल्योपम के असंख्यातवें भाग जितनी है । २१ लेश्याभिः सर्वाभिः प्रथमे समये परिणताभिस्तु । नापि कस्याप्युपपादः परे भवेऽस्ति जीवस्य ।। नील लेश्या की जो उत्कृष्ट स्थिति है, उसमें एक समय मिलाने पर वह कापोत लेश्या की जघन्य स्थिति होती है और उसकी उत्कृष्ट स्थिति पल्योपम के असंख्यातवें भाग जितनी है। इससे आगे भवनपति, वाणव्यन्तर, ज्योतिष्क और वैमानिक देवों की तेजोलेश्या की स्थिति का निरूपण करूंगा। तेजोलेश्या की जघन्य स्थिति दश हजार वर्ष और तैजस्याः स्थितिः जघन्यका भवति । उत्कृष्ट स्थिति पल्योपम के असंख्यातवें भाग अधिक वधुवचिपत्योपम दो सागर की होती है । असङ्ख्यभागं चोत्कृष्टा ।। या तैजस्याः स्थितिः खलु उत्कृष्टा सा तु समयाभ्यधिका । जघन्येन पद्मायाः दश तु मुहूर्ताधिकानि चोत्कृष्टा । या पद्मायाः स्थितिः खलु उत्कृष्टा सा तु समयाभ्यधिका । जघन्येन शुक्लायाः अभ्यधिका ।। तेजोलेश्या की जघन्य स्थिति एक पल्योपम और उत्कृष्ट स्थिति पल्योपम के असंख्यातवें भाग अधिक दो सागर की होती है। जो तेजोलेश्या की स्थिति है, उसमें एक समय मिलाने पर वह पद्म लेश्या की जघन्य स्थिति होती है और उसकी उत्कृष्ट स्थिति अन्तर्मुहूर्त अधिक दश सागर की होती है। जो पद्म लेश्या की उत्कृष्ट स्थिति है, उसमें एक समय मिलाने पर वह शुक्ल लेश्या की जघन्य स्थिति होती है और उसकी उत्कृष्ट स्थिति अन्तर्मुहूर्त अधिक तेतीस सागर की होती है। कृष्ण, नील और कापोत-ये तीनों अधर्म-लेश्याएं हैं। इन तीनों से जीव प्रायः दुर्गति को प्राप्त होता है । तेजस, पद्म और शुक्ल ये तीनों धर्म- लेश्याएं हैं। इन तीनों से जीव प्रायः सुगति को प्राप्त होता है। पहले समय में परिणत सभी लेश्याओं में कोई भी जीव दूसरे भव में उत्पन्न नहीं होता । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003626
Book TitleAgam 30 Mool 03 Uttaradhyayana Sutra Uttarajjhayanani Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2006
Total Pages770
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_uttaradhyayan
File Size25 MB
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