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________________ चतुरंगीय अध्ययन ३: आमुख पराक्रम नहीं कर पाते। जानना व श्रद्धा रखना एक वस्तु है देवयोनि से च्युत हो जब वह पुनः मनुष्य बनता है तब वह और उसको क्रियान्वित करना दूसरी। इसमें संकल्प-बल, धृति, दशांगवाली मनुष्य योनि में आता है। श्लोक १७ और १८ में ये संतोष और अनुद्विग्नता की अत्यन्त आवश्यकता होती है। दस अंग निम्नोक्त कहे गये हैंजिनका चित्त व्याक्षिप्त या व्यामूढ़ नहीं है, वे ही व्यक्ति संयम में १. कामस्कन्ध। प्रवृत्त हो सकते हैं। २. मित्रों की सुलभता। नियुक्तिकार ने दुर्लभ अंगों का कुछ विस्तार किया है। ३. बन्धुजनों का सुसंयोग। उसके अनुसार मनुष्यता, आर्य क्षेत्र, उत्तम जाति, उत्तम कुल, ४. उच्चगोत्र की प्राप्ति। सर्वांगपरिपूर्णता, नीरोगता, पूर्णायुष्य, परलोक-प्रवण बुद्धि, ५. रूप की प्राप्ति। धर्म-श्रवण, धर्म-स्वीकरण, श्रद्धा और संयम-ये सब दुर्लभ ६. नीरोगता की प्राप्ति। हैं।' मनुष्य भव की दुर्लभता से दस दृष्टांत नियुक्ति में उल्लिखित ७. महाप्रज्ञता। ८. विनीतता। श्रद्धा की दुर्लभता बताने के लिए सात निहूनवों की कथाएं ६. यशस्विता। दी गई हैं। १०. बलवत्ता। भगवान् ने कहा- 'सोही उज्जुयभूयस्स धम्मो सुद्धस्स इस अध्ययन के श्लोक १४ और १६ में आया हुआ चिट्ठई'-सरल व्यक्ति की शोधि होती है और धर्म शुद्ध 'जक्ख' (सं. यक्ष) शब्द भाषा-विज्ञान की दृष्टि से ध्यान देने आत्मा में ठहरता है। जहां सरलता है वहां शुद्धि है और जहां योग्य है। इसके अर्थ का अपकर्ष हुआ है। आगम-काल में शुद्धि है वहां धर्म का निवास है। धर्म का फल आत्म-शुद्धि है। 'यक्ष' शब्द 'देव' अर्थ में प्रचलित था। कालानुक्रम से इसके अर्थ परन्तु धर्म की आराधना करने वाले के पुण्य का बन्ध होता है। का हास हुआ और आज भूत, पिशाच का-सा अर्थ देने लगा है। १. उत्तराध्ययन नियुक्ति, गाथा १५६: माणुस्स खित्त जाई, कुल रूवारोग्ग आउयं बुद्धी। सवणुग्गह सद्धा, संजमो अ लोगंमि दुलहाई।। २. वही, गाथा १६०: चुल्लग पासग धन्ने, जूए रयणे अ सुमिण चक्के य। चम्म जुगे परमाणु, दस दिळंता मणुअलंभे।। ३. उत्तराध्ययन नियुक्ति, गाथा १६४-६६ : बहुरयपएसअव्वत समुच्छ, दुगतिगअबद्धिगा चेव। एएसिं निग्गमणं, वुच्छामि अहाणुपुब्बीए।। बहुरय जमालिपभवा, जीवपएसा य तीसगुत्ताओ। अव्वात्ताऽऽसाढाओ, सामुच्छेयाऽऽसमित्ताओ। गंगाए दोकिरिया, छलुगा तेरासिआण उप्पत्ति। थेरा य गुट्ठमाहिल, पुट्ठमबद्धं परूविंति।। Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003626
Book TitleAgam 30 Mool 03 Uttaradhyayana Sutra Uttarajjhayanani Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2006
Total Pages770
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_uttaradhyayan
File Size25 MB
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