________________
अनुयोगद्वार आगम में नामकरण के दस हेतु बतलाए गए हैं। उनमें एक हेतु 'आदान-पद' है। इस अध्ययन का नाम उसी आदान - पद (प्रथम पद) के कारण 'चतुरंगीय' हुआ है ।' इस अध्ययन में (१) मनुष्यता, (२) धर्मश्रुति, (३) श्रद्धा और ( ४ ) तप-संयम में पुरुषार्थ-इन चार अंगों की दुर्लभता का प्रतिपादन है। जीवन के ये चार प्रशस्त अंग— विभाग हैं। ये अंग प्रत्येक व्यक्ति के द्वारा सहज प्राप्य नहीं हैं। चारों का एकत्र समाहार विरलों में पाया जाता है। जिनमें ये चारों नहीं पाए जाते
आमुख
धर्म की पूर्ण आराधना नहीं कर सकते। एक की भी कमी उनके जीवन में लंगड़ापन ला देती है। चारों अंगों की दुर्लभता निम्न विवेचन से प्रकट होगी
(१) मनुष्यता
आत्मा से परमात्मा बनने का एकमात्र अवसर मनुष्य जन्म से प्राप्त होता है । तिर्यंच जगत् में क्वचित् पूर्व संस्कारों से प्रेरित धर्माराधना होती है, परन्तु वह अधूरी रहती है। देवता धर्म की पूरी आराधना नहीं कर पाते। वे विलास में ही अधिक समय गंवाते हैं । श्रामण्य के लिए वे योग्य नहीं होते। नैरयिक जीव दुःखों से प्रताड़ित होते हैं अतः उनका धार्मिक - विवेक प्रबुद्ध नहीं होता । मनुष्य का विवेक जागृत होता है । वह अति सुखी और अति दुःखी भी नहीं होता अतः वह धर्म की पूर्ण आराधना का उपयुक्त अधिकारी है। (२) धर्म - श्रवण
धर्म-श्रवण की रुचि प्रत्येक में नहीं होती। जिनका अन्तःकरण धार्मिक भावना से भावित होता है, वे मनुष्य धर्म-श्रवण में तत्पर रहते हैं। बहुत लोग दुर्लभतम मनुष्यत्व को पाकर भी धर्म सुनने का लाभ नहीं ले पाते। नियुक्तिकार ने धर्म - श्रुति के १३ विघ्न बतलाए हैं-
का भाव ।
४. स्तम्भ — जाति आदि का अहंकार ।
१. अणुओगदाराई, सूत्र ३२२ : से किं तं आयाणपएणं? आयाणपएणं आवंती, चाउरंगिज्जं, असंखयं, जण्णइज्जं... एलइज्जं... से तं आयाणपएणं । २. उत्तराध्ययन निर्युक्ति, गाथा १६० :
आलस्य मोहऽवन्ना, थंभा कोहा पमाय किविणता ।
(३)
भय सोगा अन्नाणा, वक्खेव कुऊहला रमणा ।।
३. बृहद्वृत्ति, पत्र १५२ : ननु किमेवंविधा अपि केचिदत्यन्तमृजवः सम्भवेयुः
Jain Education International
५. क्रोध- धर्म - कथक के प्रति अप्रीति । ६. प्रमाद - निद्रा, विकथा आदि । ७. कृपणता द्रव्य-व्यय का भय ।
८. भय ।
६. शोक- इष्ट-वियोग से उत्पन्न दुःख । १०. अज्ञान - मिथ्या धारणा ।
१. आलस्य अनुद्यम ।
२. मोह—घरेलू धन्धों की व्यस्तता से उत्पन्न मूर्च्छा (४) तप-संयम में पुरुषार्थ
अथवा हेयोपादेय के विवेक का अभाव ।
से उत्पन्न व्याकुलता ।
११.
व्याक्षेप कार्य- - बहुलता
१२. कुतूहल -- इन्द्रजाल, खेल, नाटक आदि देखने की आकुलता ।
१३. रमण क्रीड़ा परायणता ।
श्रद्धा
भगवान ने कहा- "सद्धा परम दुल्लहा "श्रद्धा परम दुर्लभ है। जीवन - विकास का यह मूल सूत्र है। जिसका दृष्टिकोण मिथ्या होता है वह सद्भाव को सुनकर भी उसमें श्रद्धा नहीं करता और श्रुत या अश्रुत असद्भाव में उसकी श्रद्धा हो जाती है। श्रद्धा मिथ्यादृष्टि के लिए दुर्लभ है। जिसका दृष्टिकोण सम्यग् होता है वह सद्भाव को सुनकर उसमें श्रद्धा करता है । किन्तु अपने अज्ञानवश या गुरु के नियोग से असद्भाव के प्रति भी उसकी श्रद्धा हो जाती है। इस प्रकार सम्यग्दृष्टि के लिए भी श्रद्धा दुर्लभ है।
शिष्य ने पूछा - "भंते! क्या सम्यग् दृष्टि इतनी ऋजु प्रकृति के होते हैं जो गुरु के कथनमात्र से असद्भाव के प्रति श्रद्धा कर लेते हैं?"
निर्युक्तिकार ने संयम के आठ पर्यायवाची नाम बतलाए
३. अवज्ञा या अवर्ण-धर्म-कथक के प्रति अवज्ञा या गर्हा हैं - (१) दया (२) संयम (३) लज्जा (४) जुगुप्सा (५) अछलना
(६) तितिक्षा (७) अहिंसा और (८) हिरि
आचार्य ने कहा – “आयुष्मन् ! ऐसा होता है। जमालि ने जब असद्भाव की प्ररूपणा की और अपने शिष्यों को उससे परिचित किया तो कुछ शिष्य उसमें श्रद्धान्वित हो गए।"३ इसीलिए यह बहुत मार्मिक ढंग से कहा है कि- "श्रद्धा परम दुर्लभ है।"
संयम के प्रति श्रद्धा होने पर भी सभी व्यक्ति उसमें
ये स्वयमागमानुसारिमतयोऽपि गुरुपदेशतोऽन्यथापि प्रतिपद्येरन् ? एवमेतत्, तथाहि - जमालिप्रभृतीनां निहूनवानां शिष्यास्तद्भक्तियुक्ततया स्वयमागमानुसारिमतयो ऽपि गुरुप्रत्ययाद्विपरीतमर्थं प्रतिपन्नाः । ४. उत्तराध्ययन निर्युक्ति, गाथा १५८ :
दया न संजमे लज्जा, दुगुंछा ऽछलणा इअ । तितिक्खा य अहिंसा य, हिरि एगट्टिया पया।।
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org