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________________ तपो-मार्ग-गति ५०७ अध्ययन ३० : श्लोक ६-१७ ६. इत्तिरिया मरणकाले दुविहा अणसणा भवे। इत्तिरिया सावकंखा निरवकंखा बिइज्जिया।। इत्वरिक मरणकालं द्विविध अनशनं भवेत्। इत्वरिक सावकांक्ष निरवकांक्षं द्वितीयम्।। अनशन दो प्रकार का होता है-इत्वरिक मरण-काल। इत्वरिक सावकांक्ष (अनशन के पश्चात् भोजन की इच्छा से युक्त) और दूसरा निरवकांक्ष (भोजन की इच्छा से मुक्त) होता है। १०.जो सो इत्तरियतवो यत् तद् इत्वरिकं तपः सो समासेण छविहो। तत्समासेन षड्विधम् । सेढितवो पयरतवो श्रेणितपः प्रतरतपः घणो य तह होई वग्गो य।। घनश्च तथा भवति वर्गश्च ।। जो इत्वरिक तप है, वह संक्षेप में छह प्रकार का है—(१) श्रेणि-तप, (२) प्रतर-तप, (३) धन-तप, (४) वर्ग-तप, (५) वर्ग-वर्ग-तप और (६) प्रकीर्ण-तप। इत्वरिक तप नाना प्रकार के मनोवांछित फल देने वाला होता है। ११. तत्तो य वग्गवग्गो उ पंचमो छट्ठओ पइण्णतवो। मणइच्छियचित्तत्थो नायव्वो होइ इत्तरिओ।। ततश्च वर्गवर्गस्तु पंचमं षष्ठकं प्रकीर्णतपः। मनईप्सितचित्रार्थ ज्ञातव्यं भवति इत्वरिकम् ।। मरण-काल अनशन के काय-चेष्टा के आधार पर सविचार और अविचार-ये दो भेद होते हैं। १२. जा सा अणसणा मरणे दुविहा सा वियाहिया। सवियारअवियारा कायचिट्ठ पई भवे ।। यत्तदनशनं मरणे द्विविधं तद् व्याख्यातम्। सविचारमविचारं कायचेष्टां प्रति भवेत्।। १३. अहवा सपरिकम्मा अपरिकम्मा य आहिया। नीहारिमणीहारी आहारच्छेओ य दोसु वि।। अथवा सपरिकर्म अपरिकर्म चाख्यातम्। निहारि अनिर्धारि आहारच्छेदश्च द्वयोरपि।। अथवा इसके दो भेद होते हैं—सपरिकर्म और अपरिकर्म । अविचार अनशन के निर्हारी और अनिर्हारी—ये दो भेद होते हैं। आहार का त्याग दोनों (सविचार और अविचार तथा सपरिकर्म और अपरिकर्म) में होता है। द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव और पर्यायों की दृष्टि से अवमौदर्य (ऊनोदरिका) संक्षेप में पांच प्रकार हैं। . १४. ओमोयरियं पंचहा समासेण वियाहियं। दव्वओ खेत्तकालेणं भावेणं पज्जवेहि य।। १५. जो जस्स उ आहारो तत्तो ओमं तु जो करे। जहन्नेणेगसित्थाई एवं दव्वेण ऊ भवे।। १६. गामे नगरे तह रायहाणि निगमे य आगरे पल्ली। खेडे कब्बडदोणमुहपट्टणमडंबसंबाहे।। जिसका जितना आहार है उससे जो जघन्यतः एक सिक्थ (धान्य कण) और उत्कृष्टतः एक कवल कम खाता है, वह द्रव्य से अवमौदर्य तप होता है। अवमौदर्य पंचधा समासेन व्याख्यातम्। दव्यतः क्षेत्रकालेन भावेन पर्यवैश्च यो यस्य त्वाहारः ततोऽवमं तु यः कुर्यात् । जघन्येन एकसिक्थादि एवं द्रव्येण तु भवेत्।। ग्रामे नगरे तथा राजधान्यां निगमे च आकरे पल्ल्याम् । खेटे कर्वटद्रोणमुखपत्तनमडंबसम्बाधे।। आश्रमपदे विहारे सन्निवेशे समाजघोषे च। स्थलीसेनास्कन्धावारे सार्थे संवर्तकोट्टे य।। ग्राम, नगर, राजधानी, निगम, आकर, पल्ली, खेड़ा, कर्वट, द्रोणमुख, पत्तन, मंडप, संबाध, आश्रम-पद, विहार, सन्निवेश, समाज, घोष, स्थली, सेना का शिविर, सार्थ, संवर्त, कोट, १७.आसमपए विहारे सन्निवेसे समायघोसे य। थलिसेणाखंधारे सत्थे संवट्टकोट्टे य।। Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003626
Book TitleAgam 30 Mool 03 Uttaradhyayana Sutra Uttarajjhayanani Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2006
Total Pages770
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_uttaradhyayan
File Size25 MB
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