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________________ उत्तरज्झयणाणि अध्ययन ३० : श्लोक १८-२६ १८. वाडेसु व रच्छासु व घरेसु वा एवमित्तियं खेत्तं । कप्पइ उ एवमाई एवं खेत्तेण ऊ भवे ।। ५०८ वाटेषु वा रथ्यासु वा गृहेषु वैवमेतावत् क्षेत्रम्। कल्पते त्वेवमादि एवं क्षेत्रेण तु भवेत्।। पाड़ा, गलियां, घर-इनमें अथवा इस प्रकार के अन्य क्षेत्रों में से पूर्व निश्चय के अनुसार निर्धारित क्षेत्र में भिक्षा के लिए जा सकता है। इस प्रकार यह क्षेत्र से अवमौदर्य तप होता है। १६. पेडा य अद्धपेडा गोमुत्तिपयंगवीहिया चेव।। संबुक्कावट्टाययगंतुंपच्चागया छट्ठा।। पेटा चार्धपेटा गोमूत्रिका पतंगवीथिका चैव। शम्बूकावर्ताआयतंगत्वाप्रत्यागता षष्ठी।। (प्रकारांतर से) पेटा, अर्द्ध-पेटा, गोमूत्रिका, पतंगवीथिका, सम्बूकावर्ता और आयतं-गत्वा-प्रत्यागतायह छह प्रकार का क्षेत्र से अवमौदर्य तप होता है। २०.दिवसस्स पोरुसीणं चउण्हं पिउ जत्तिओ भवे कालो। एवं चरमाणो खलु कालोमाणं मुणेयव्वो।। दिवसस्य पौरुषीणां दिवस के चार प्रहरों में जितना अभिग्रह-काल हो चतसृणामपि तु यावान् भवेत् कालः। उसमें भिक्षा के लिए जाऊंगा, अन्यथा नहीं इस एवं चरतः खलु प्रकार चर्या करने वाले मुनि के काल से अवमौदर्य कालावमानं ज्ञातव्यम्।। तप होता है। २१. अहवा तइयाए पोरिसीए ऊणाइ घासमेसंतो। चउभागूणाए वा एवं कालेण ऊ भवे ।। अथवा तृतीयायां पौरुष्यां ऊनायां ग्रासमेषयन्। चतुर्भागोनायां वा एवं कालेन तु भवेत्।। अथवा कुछ न्यून तीसरे प्रहर (चतुर्थ भाग आदि न्यून प्रहर) में जो भिक्षा की एषणा करता है, उसे (इस प्रकार) काल से अवमौदर्य तप होता है। स्त्री अथवा पुरुष, अलंकृत अथवा अनलंकृत अमुक वय वाले, अमुक वस्त्र वाले, २२.इत्थी वा पुरिसो वा स्त्री वा पुरुषो वा अलंकिओ वाणलंकिओ वा वि। अलंकृतो वाऽनलंकृतो वापि अन्नयरवयत्थो वा अन्यतरवयस्थो वा अन्नयरेणं व वत्थेणं ।। अन्यतरेण वा वस्त्रेण।। २३.अन्नेण विसेसेणं वण्णेणं भावमणुमुयंते उ। एवं चरमाणो खलु भावोमाणं मुणेयव्वो।। अन्येन विशेषेण वर्णेन भावमनुन्मुंचन् तु। एवं चरतः खलु भावावमानं ज्ञातव्यम् ।। अमुक विशेष प्रकार की दशा, वर्ण या भाव से युक्त दाता से भिक्षा ग्रहण करूंगा, अन्यथा नहीं इस प्रकार चर्या करने वाले मुनि के भाव से अवमौदर्य तप होता है। २४. दवे खेत्ते काले दव्ये क्षेत्रे काले भावम्मि य आहिया उ जे भावा। भावे चाख्यातास्तु ये भावाः।। एएहिं ओमचरओ एतैरवमचरकः पज्जवचरओ भवे भिक्खू ।। पर्यवचरको भवेद् भिक्षुः।। द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव में जो भाव (पर्याय) कहे गए हैं, उन सबके द्वारा अवमौदर्य करने वाला भिक्षु पर्यवचरक होता है। आठ प्रकार के अग्र-गोचर (गोचराग्र) तथा सात प्रकार की एषणाएं और जो अन्य अभिग्रह हैं, उन्हें भिक्षाचर्या कहा जाता है। २५.अट्ठविहगोयरग्गं तु तहा सत्तेव एसणा। अभिग्गहा य जे अन्ने भिक्खायरियमाहिया।। २६.खीरदहिसप्पिमाई पणीयं पाणभोयणं। परिवज्जणं रसाणं तु भणियं रसविवज्जणं ।। अष्टविधाग्रगोचरस्तु तथा सप्तैवैषणाः। अभिग्रहाश्च ये अन्ये भिक्षाचर्या आख्याता।। क्षीरदधिसर्पिरादि प्रणीतं पानभोजनं। परिवर्जनं रसानां तु भणितं रसविवर्जनम्।। दूध, दही, घृत आदि तथा प्रणीत पान-भोजन और रसों के वर्जन को रस-विवर्जन तप' कहा जाता है। Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003626
Book TitleAgam 30 Mool 03 Uttaradhyayana Sutra Uttarajjhayanani Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2006
Total Pages770
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_uttaradhyayan
File Size25 MB
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